नागा साधु अपने पूरे शरीर पर भभूत लगाते हैं। ये हमेशा नग्न अवस्था में ही नजर आते हैं। चाहे कोई भी मौसम हो, उनके शरीर पर वस्त्र नहीं होते। वे शरीर पर भस्म लपेटकर घूमते हैं। नागाओं में भी दिगंबर साधु ही शरीर पर भभूत लगाते हैं। यह भभूत ही उनका वस्त्र और श्रृंगार होता है। यह भभूत उन्हें बहुत सारी आपदाओं से बचाता भी है। नागा भौतिक सुखों का त्याग कर सत्य व धर्म के मार्ग पर निकल पड़ते हैं। तो आइए इस आलेख में नागा साधुओं द्वारा लगाए जाने वाले भभूत के बारे में विस्तार से जानते हैं।
भभूत या राख बहुत लम्बी प्रक्रिया के बाद तैयार होती है। हवन कुंड में पीपल, पाखड़, रसाला, बेलपत्र, केला व गऊ के गोबर को भस्म किया जाता है। इस भस्म की हुई सामग्री की राख को कपड़े से छानकर कच्चे दूध में इसका लड्डू बनाया जाता है। इसे सात बार अग्नि में तपाया और फिर कच्चे दूध से बुझाया जाता है। इस तरह से तैयार भस्मी को समय-समय पर लगाया जाता है। यही भस्मी नागा साधुओं का वस्त्र होता है।
वहीं, कुछ नागा साधु चिता की राख को शुद्ध करके शरीर पर मलते हैं। तो वहीं कुछ अपने धूनी की राख को ही शरीर पर मलते हैं। नागा साधु अपने पूरे शरीर पर भभूत मले हुए निर्वस्त्र ही रहते हैं।
नागा साधु प्रकृति और प्राकृतिक अवस्था को महत्व देते हैं। इसलिए वे वस्त्र नहीं पहनते। दरअसल, नागा साधुओं का मानना है कि इंसान निर्वस्त्र जन्म लेता है। इसलिए, मनुष्य की यह अवस्था प्राकृतिक है। इसी भावना को आत्मसात करते हुए नागा साधु हमेशा निर्वस्त्र रहते हैं। इसके अलावा नागा साधु बाहरी चीजों को भी आडंबर मानते हैं। शरीर पर भस्म और जटा जूट भी नागा साधुओं की पहचान है।
नागा साधु तीन प्रकार के योग करते हैं। जो ठंड से निपटने में उनके लिए मददगार साबित होता है। वे अपने विचारों और खानपान पर भी संयम रखते हैं। इसके पीछे यह भी तथ्य दिया जाता है कि, मानव का शरीर इस प्रकार बना है कि उसे जिस माहौल में ढालेंगे शरीर उसी अनुसार ढल जाएगा। हालांकि, इसके लिए एक चीज की जरूरत होती है और वह है निरंतर अभ्यास। नागा साधुओं ने भी अभ्यास द्वारा अपने शरीर को ऐसा बना लिया है कि उन्हें ठंड नहीं लगती है।
नागा साधु बनने की प्रक्रिया में सबसे पहले इन्हें ब्रह्मचार्य की शिक्षा प्राप्त करनी होती है। इसमें सफल होने के बाद उन्हें महापुरुष दीक्षा दी जाती है और फिर यज्ञोपवीत संस्कार होता है। इसके बाद वे अपने परिवार और स्वंय अपना पिंडदान करते हैं। इस प्रकिया को ‘बिजवान’ कहा जाता है। यही कारण है कि नागा साधुओं के लिए सांसारिक परिवार का महत्व नहीं होता, ये समुदाय को ही अपना परिवार मानते हैं। बता दें कि, नागा साधुओं का कोई विशेष स्थान या मकान भी नहीं होता है। ये कुटिया बनाकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं। सोने के लिए भी ये किसी बिस्तर का इस्तेमाल नहीं करते हैं। और सिर्फ जमीन पर ही सोते हैं।