पौराणिक कथाओं के अनुसार देवताओं और दानवों ने मिलकर क्षीरसागर में समुद्र मंथन किया था । इस समुद्र मंथन के दौरान 14 रत्न सहित अमृत और विष की प्राप्ति हुई। इस समुद्र मंथन से ही माता लक्ष्मी जी की उत्पत्ति हुई जो भगवान श्री विष्णु की अर्धांगिनी बनीं। तभी से भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी सदैव साथ रहते हैं। भगवान विष्णु सृष्टि के पालनहार और जगतपिता हैं तो वहीं माता लक्ष्मी सभी का पेट भरने वाली अनपूर्णा और जगत माता हैं। एक बार माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु भ्रमण करने के लिए एक वन में गए, जब दोनों वहां घूम रहे थे तो माता लक्ष्मी जी को एक सुंदर अश्व दिखाई दिया जिसे देखने में माता इतनी मग्न हो गईं कि उन्हें ध्यान ही नहीं रहा कि भगवान विष्णु माता से बात कर रहे हैं और माता का ध्यान भगवान श्री विष्णु जी की बातों पर नहीं रहा।
इस बात से नाराज होकर भगवान विष्णु ने उनको पृथ्वी लोक पर अश्वी यानी घोड़ी बनने का श्राप दे दिया। भगवान विष्णु ने कहा कि आपको कुछ समय के लिए अश्व की योनी में रहना होगा, जिसके उपरांत आपको एक पुत्र प्राप्त होगी जिससे आप श्राप मुक्त हो जाएंगी। भगवान विष्णु के श्राप से माता लक्ष्मी कुछ दिन के धरती पर अश्वी के रूप में रहने लगीं और श्राप मुक्ति के बाद वापस स्वर्ग लोक लौट गईं।
एक अन्य मान्यता के अनुसार एक बार ऋषि दुर्वासा ने स्वर्ग के देवता राजा इंद्र को एक फूलों की माला भेंट की जिसे इंद्र ने ऐरावत को पहना दी। ऐरावत हाथी ने इस फूलों की माला को तोड़कर फेंक दिया। इस अपमान से क्रोधित होकर ऋषि दुर्वासा ने इंद्र को श्राप दिया कि तुम्हारा पुरुषार्थ क्षीण हो जाएं, तुम श्रीहिन हो जाओ और देवलोक से तुम्हारा राज्य समाप्त हो जाए। दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण माता लक्ष्मी ने तुरंत स्वर्ग छोड़ दिया। जिसके बाद देवराज इंद्र श्री हीन हो गए और उनका समस्त राज पाठ उनसे छिन गया। इन सबसे परेशान होकर देवताओं ने भगवान विष्णु से रक्षा की प्रार्थना की जिसके बाद श्री हरि विष्णु ने कश्यण अवतार धारण कर समुद्र मंथन कराया और दोबारा लक्ष्मी जी की प्राप्ति की।
सुनो सुनो, सुनो सुनो
सुनो सुनो एक कहानी सुनो
सुनो सुनो एक कहानी सुनो
ओ, आए तेरे भवन, दे दे अपनी शरण
ओ, आए तेरे भवन, दे दे अपनी शरण
मढ़िया में जाके बोए जवारे,
ऊंची पहड़िया में गाड़ दियो झंडा।
मेरे नैनों की प्यास बुझा दे
माँ, तू मुझे दर्शन दे (माँ, तू मुझे दर्शन दे)