कुरुवंश के कुलगुरु के रूप विख्यात कृपाचार्य महर्षि यानी संत होने के साथ-साथ अद्वितीय योद्धा भी थे। इन्होंने कौरवों-पांडवों को अस्त्र विद्या सिखाई थी, साथ ही वे परमतपस्वी भी थे। कृपाचार्य को राजा शांतनु ने अपनी बहन कृपी के साथ गोद लिया था। इनकी बहन कृपी का विवाह गुरु द्रोणाचार्य से हुआ। कृपाचार्य जी एक महान ऋषि थे। ये अश्वत्थामा के मामा और कौरवों के कुलगुरु थे। महाभारत में उन्होंने कौरवों की ओर से कुरुक्षेत्र का युद्ध लड़ा, तो वे उन कुछ योद्धाओं में से एक थे जो युद्ध समाप्त होने के बाद भी जीवित रहे। महाभारत में उन्हें उनकी निष्पक्षता के लिए जाना जाता था, इसी के कारण उन्हें भगवान परशुराम से उन्हें अमरत्त्व का वरदान मिला था। कृपाचार्य परिस्थिति के अनुसार अपने को ढालने के लिए जाने जाते हैं, इसलिए ये कौरवों की ओर से लड़ने और पराजित होने के बावजूद पांडवों के कुलगुरु के पद पर आसीन हुए। श्रीमद्भागवत पुराण में उल्लेख मिलता है कि मनु के समय कृपाचार्य की गिनती सप्तऋर्षियों में होती थी।
जो खेल गये प्राणो पे, श्री राम के लिए,
एक बार तो हाथ उठालो,
जो प्रेम गली में आए नहीं,
प्रियतम का ठिकाना क्या जाने,
वो नमस्ते दुआ और,
सलाम का नहीं,
जो राम को लाए है,
हम उनको लाएंगे,