आषाढ़ गुप्त नवरात्रि का तीसरा दिन मां दुर्गा के तीसरे स्वरूप मां चंद्रघंटा को समर्पित होता है। मां का यह रूप सौम्यता और युद्धभाव, दोनों का प्रतीक है। उनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र सुशोभित रहता है, इसी कारण उन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है। उनका रूप भक्तों में भय का नाश करने वाला और दिव्य ऊर्जा प्रदान करने वाला माना जाता है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार, एक बार जब महिषासुर नामक असुर ने देवताओं को पराजित कर उनका स्वर्ग छीन लिया था, तब देवताओं ने त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) से सहायता की प्रार्थना की। त्रिदेवों के तेज से उत्पन्न हुई देवी दुर्गा ने मां चंद्रघंटा के रूप में प्रकट होकर युद्धभूमि में कदम रखा।
मां चंद्रघंटा ने सिंह पर आरूढ़ होकर युद्ध किया और महिषासुर के आतंक का अंत किया। उनके घंटे के स्वर से असुरों की सेना भयभीत हो उठी और देवताओं को पुनः उनका स्थान प्राप्त हुआ। इस कथा से यह संदेश मिलता है कि जब अधर्म अपने चरम पर होता है, तब देवी शक्ति स्वयं प्रकट होकर धर्म की रक्षा करती हैं।
मां चंद्रघंटा की पूजा साधक को साहस, आत्मविश्वास और मानसिक स्थिरता प्रदान करती है। उनके स्वरूप का ध्यान करने से भय, चिंता और असुरक्षा समाप्त होती है। साथ ही, साधक को आध्यात्मिक शक्ति की अनुभूति होती है।