भाद्रपद मास की अमावस्या तिथि का हिंदू धर्म और लोक परंपराओं में विशेष महत्व है। इसे अलग-अलग क्षेत्रों में कुशोत्पाटनी अमावस्या, कुशग्रहणी अमावस्या और पिठोरी अमावस्या कहा जाता है। हर नाम के पीछे धार्मिक और सांस्कृतिक कारण छिपे हैं।
भाद्रपद अमावस्या को पिठोरी अमावस्या इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस दिन देवी दुर्गा की पूजा होती है। विवाहित महिलाएं संतान प्राप्ति और अपने बच्चों की कुशल मंगल कामना के लिए व्रत रखती हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार माता पार्वती ने इंद्राणी को इस व्रत का महत्व बताया था। अमावस्या तिथि पितरों की तिथि मानी जाती है, इसलिए इस दिन तर्पण और पिंडदान का भी विशेष महत्व है।
धार्मिक मान्यता है कि अमावस्या तिथि पर शनिदेव का जन्म हुआ था। इसी कारण भाद्रपद अमावस्या को शनि दोष और कालसर्प दोष से मुक्ति के लिए विशेष दिन माना जाता है। यह महीना श्रीकृष्ण का भी महीना माना जाता है, इसलिए इस अमावस्या पर कृष्ण पूजा का भी महत्व बढ़ जाता है। अगर इस दिन सूर्यग्रहण हो तो इसका फल और भी अधिक माना जाता है।
पिठोरी शब्द को पितृ, पीपल, पृथ्वी, इंदिराजा और माता दुर्गा से जोड़ा जाता है। आदिवासी और भील समाज में पिथौरा पूजा का विशेष महत्व है। पिथौरा एक पारंपरिक चित्रकला भी है, जिसे शुभ अवसरों पर बनाया जाता है।
भाद्रपद अमावस्या को पोला-पिठोरा पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। यह मूल रूप से कृषि आधारित पर्व है। इसका संबंध खेतों में रोपाई और निंदाई जैसे कामों के पूरा होने से है। इस दिन किसान अपने बैलों को सजाकर पूजा करते हैं। महिलाएं इस मौके पर मायके जाती हैं और बच्चे मिट्टी के बैलों की पूजा करते हैं।
महाराष्ट्र, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ में पोला पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। घरों में खासतौर पर पूरणपोली और खीर बनाई जाती है। बैलों को सजाकर उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है। बैल दौड़ और बैल सजाओ प्रतियोगिता का आयोजन होता है, जिसमें किसान बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
पिठोरी अमावस्या पर चौसठ योगिनी और पशुधन की पूजा की परंपरा भी है। महिलाएं अपने पुत्रों की दीर्घायु के लिए व्रत करती हैं। इस अवसर पर जहां घर-घर में पकवान बनते हैं, वहीं बैलों की पूजा कर उन्हें विशेष आहार खिलाया जाता है।