शारदीय नवरात्रि का पर्व हर साल विशेष श्रद्धा और धूमधाम से मनाया जाता है। इस दौरान देवी दुर्गा की पूजा के साथ कई अनुष्ठान किए जाते हैं। इन्हीं अनुष्ठानों में बिल्व निमंत्रण एक प्रमुख परंपरा है। इसमें मां दुर्गा को बेलपत्र (बिल्वपत्र) के माध्यम से पृथ्वी पर आने का निमंत्रण दिया जाता है। खासकर दुर्गा पूजा पंडालों में इस परंपरा का विशेष महत्व होता है।
पौराणिक कथा के अनुसार, शारदीय नवरात्रि में मां दुर्गा कैलाश पर्वत छोड़कर धरती पर आती हैं। वे अकेले नहीं, बल्कि देवी लक्ष्मी, देवी सरस्वती, भगवान गणेश और कार्तिकेय के साथ पधारती हैं। षष्ठी के दिन उनका आगमन होता है। यह समय दक्षिणायन का होता है, जब सभी देवता निद्रा में होते हैं। इसलिए मां को जागृत करने के लिए अकाल बोधन और बिल्व निमंत्रण की परंपरा निभाई जाती है। मान्यता है कि सबसे पहले भगवान श्रीराम ने रावण से युद्ध से पूर्व देवी दुर्गा का अकाल बोधन कर उन्हें प्रसन्न किया था। तभी से इस परंपरा का शुभारंभ माना जाता है।
षष्ठी तिथि को बिल्व निमंत्रण, कल्पारंभ, बोधन और आमंत्रण की विधि की जाती है। इस दिन पंडालों में घट स्थापना होती है और मां दुर्गा को पूजित किया जाता है। इसके बाद महासप्तमी, महाअष्टमी और महानवमी तक विशेष पूजन-अनुष्ठान चलते हैं।
धार्मिक मान्यता है कि यदि षष्ठी तिथि सायंकाल तक उपलब्ध न हो और उससे पहले ही समाप्त हो जाए, तो पञ्चमी तिथि के सायंकाल में बिल्व निमंत्रण करना श्रेष्ठ माना जाता है।
बिल्व या बेल वृक्ष को शिवपूजन में अत्यंत पवित्र माना गया है। इसी वृक्ष के नीचे जल से भरे कलश की स्थापना कर मां दुर्गा का आवाहन किया जाता है। अधिवास संस्कार के बाद देवी दुर्गा से नवपत्रिका पूजा स्वीकार करने का निवेदन किया जाता है। यही आमंत्रण अनुष्ठान कहलाता है।