हिंदू धर्म में नवरात्रि का विशेष महत्व है। साल में दो प्रमुख नवरात्रियां पड़ती हैं – चैत्र और शारदीय। इनमें से शारदीय नवरात्रि को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। इस दौरान मां दुर्गा के नौ स्वरूपों की पूजा अर्चना की जाती है और भक्त पूरे नौ दिन उपवास रखते हैं। नवरात्रि का समापन कन्या पूजन और हवन के साथ होता है। मान्यता है कि बिना कन्या पूजन के नवरात्रि की पूजा अधूरी मानी जाती है। कन्या पूजन के समय एक विशेष परंपरा देखने को मिलती है, जब नौ कन्याओं के साथ एक छोटे बालक को भी बिठाया जाता है, जिसे लंगूर कहा जाता है। आइए जानते हैं कि इस परंपरा के पीछे धार्मिक मान्यता क्या है।
नवरात्रि के आखिरी दिन यानी अष्टमी या नवमी तिथि पर कन्या पूजन की परंपरा है। भक्त घर में 2 साल से लेकर 10 साल तक की छोटी कन्याओं को आमंत्रित कर उनके चरण धोते हैं, तिलक लगाते हैं और उन्हें भोजन कराते हैं। इन्हें मां दुर्गा के नौ रूपों का स्वरूप माना जाता है। इस पूजा के बाद ही व्रत और अनुष्ठान को पूर्ण माना जाता है।
कन्याओं के साथ जो बालक बैठाया जाता है, उसे ‘लंगूर’ कहा जाता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार यह बालक भैरव बाबा का प्रतीक होता है। मां दुर्गा के भक्तों को यह स्मरण कराने के लिए कि माता की पूजा के साथ-साथ उनके गण और रक्षक भैरव बाबा की आराधना भी जरूरी है। भैरव बाबा को माता दुर्गा का पहरेदार माना गया है। इसलिए कन्याओं के साथ लंगूर की पूजा करने से भक्तों की साधना पूरी मानी जाती है और व्रत सफल होता है।
कुछ घरों में एक लंगूर की जगह दो बालकों को कन्याओं के साथ बैठाया जाता है। इनमें से एक को भैरव बाबा और दूसरे को भगवान गणेश का स्वरूप मानकर पूजा की जाती है। क्योंकि सनातन परंपरा के अनुसार, गणेश जी के पूजन के बिना कोई भी शुभ कार्य अधूरा होता है। इसी कारण भोग की थाली नौ कन्याओं के साथ लंगूर को भी दी जाती है।
मान्यता है कि कन्या पूजन और लंगूर पूजन करने से माता रानी प्रसन्न होती हैं और भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। कन्याओं और लंगूर को भोजन कराने के बाद उनके चरण स्पर्श कर दक्षिणा दी जाती है और विदा किया जाता है। इस परंपरा के पीछे संदेश है कि स्त्री शक्ति के साथ-साथ दिव्य शक्ति के सहयोगियों का सम्मान करना भी उतना ही आवश्यक है।
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