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घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग, महाराष्ट्र (Ghrishneshwar Jyotirlinga, Maharashtra)

घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग, महाराष्ट्र (Ghrishneshwar Jyotirlinga, Maharashtra)

विश्व प्रसिद्ध द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से तीन पावन ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र में अलग-अलग स्थानों पर विराजित है। लेकिन यहां एक ज्योतिर्लिंग ऐसा है जिसके बारे में तीर्थयात्रियों का मानना है की यहां की यात्रा करने से सभी 12 ज्योतिर्लिंगों की पूजा करने का लाभ मिलता है। हम बात कर रहे हैं दौलताबाद से 12 मील दूर वेरुळ गांव के पास स्थित घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग के बारे में। इसे घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से भी जाना जाता है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में सबसे आखिरी में घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग का नाम आता है। यहां मान्यता है कि जो निःसंतान दम्पती सूर्योदय से पूर्व शिवालय सरोवर के दर्शन के बाद घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करता है उसे संतान की प्राप्ति होती है। आपको बता दें कि इस मंदिर का उल्लेख शिव पुराण और पद्म पुराण में भी किया गया है। बताया जाता है कि यह मंदिर 3 हजार साल पूराना है। इस ज्योतिर्लिंग की एक और खास बात यह है कि यह पूर्वमुखी है,सर्व प्रथम स्वंय सूर्यदेव इनकी आराधना करते हैं। मान्यता है कि सूर्य के जरिए पूजे जाने के कारण घृष्णेश्वर दैहिक, दैविक, भौतिक तापों का धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का सुख प्रदान करते हैं। आदि शंकराचार्य ने कहा था कि कलियुग में इस ज्योतिर्लिंग के स्मरण मात्र से मनुष्य को रोग, दोष और दुख से मुक्ति मिल जाती है। जानते हैं घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति से जुड़ी पौराणिक कथा और मंदिर से जुड़ी कुछ खास बातें....


घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति से जुड़ी पौराणिक कथा

घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति में दो कथाएं सर्वाधिक प्रचलित हैं, जो कुछ इस प्रकार है...


पहली कथा- एक पौराणिक कथा के अनुसार भगवान शिव और देवी पार्वती सह्याद्रि पर्वतमाला में शिवालय के पास रहते थे। देवी पार्वती ने शिवालय के जल में सिंदूर मिलाया, मिश्रित सिंदूर एक शिवलिंग में परिवर्तित हो गया। सिंदूर रगड़ने के बाद शिवलिंग का निर्माण हुआ, इसीलिए इसका नाम घृष्णेश्वर पड़ा, जहां संस्कृत में घृष्ण का अर्थ घर्षण/रगड़ना होता है। और यह शिवलिंग सिंदूर यानी संस्कृत में कुमकुम से बना है, इसीलिए इसका एक और नाम कुमकुमेश्वर ज्योतिर्लिंग भी पड़ा।


दूसरी कथा- एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार दक्षिण देश में देवगिरिपर्वत के पास एक अत्यंत तेजस्वी तपोनिष्ट ब्राह्मण रहते थे। इनकी पत्नी का नाम सुदेहा था। ये दोनों आपस में बेहद प्रेम करते थे। लेकिन इनकी कोई संतान नहीं थी। ज्योतिषगणना से यह पता चला था कि सुदेहा गर्भवती नहीं हो सकती है। लेकिन फिर भी वो संतान चाहती थी। तब सुदेहा ने अपने पति यानी सुधर्मा से कहा कि वो उसकी छोटी बहन से दूसरा विवाह कर लें। सुधर्मा ने पहले तो यह बात नहीं मानी लेकिन सुदेहा की जिद के आगे सुधर्मा को झुकना ही पड़ा। सुधर्मा ने अपनी पत्नी की छोटी बहन घुश्मा से विवाह कर लिया। घुश्मा अत्यंत विनीत और सदाचारिणी स्त्री थी। साथ ही वह भगवान भोलेनाथ की परम भक्त भी थी। घुश्मा प्रतिदिन 101 पार्थिव शिवलिंग बनाती और पूरे मन के साथ उनका पूजन करती। शिवजी की कृपा ऐसी रही कि कुछ ही समय बाद उसके घर में एक बालक ने जन्म लिया। दोनों बहनों की खुशी का ठिकाना न रहा। दोनों बेहद प्यार से रह रही थीं। लेकिन पता नहीं कैसे सुदेहा के मन में एक गलत विचार आ गया। उसने सोचा कि इस घर में सब तो घुश्मा का ही है मेरा कुछ भी नहीं। इस बात को सुदेहा ने इतना सोचा की यह बात उसके मन में घर कर गई। सुदेहा सोच रही थी कि संतान भी उसकी है और उसके पति पर भी घुश्मा ने हक जमा रखा है। घुश्मा का बालक भी बड़ा हो गया है और उसका विवाह भी हो गया है। इन्हीं सब कुविचारों के साथ एक दिन उसने घुश्मा के युवा पुत्र को रात में सोते समय ही मौत के घाट उतार दिया। और उसके शव को तालाब में फेंक दिया। यह वही तालाब था जहां घुश्मा हर रोज पार्थिव शिवलिंगों को फेंका करती थी। जब सुबह हुई तो पूरे घर में कोहराम मच गया। घुश्मा और उसकी बहू फूट-फूटकर रोने लगे। लेकिन घुश्मा ने शिव में अपनी आस्था नहीं छोड़ी। उसने हर दिन की तरह ही इस दिन भी शिव की भक्ति की। पूजा समाप्त होने के बाद जब वो पार्थिव शिवलिंगों को फेंकने तालाब पर गई तो उसका बेटा तालाब के अंदर से निकलकर आता हुआ दिखाई पड़ा। बाहर आकर वो हमेशा की तरह घुश्मा के चरणों पर गिर पड़ा। ऐसा लग रहा था कि वो कहीं से घूमकर आ रहा हो। तभी वहां शिव जी प्रकट हुए और उन्होंने घुश्मा से वरदान मांगने को कहा। लेकिन शिव जी सुदेहा की इस करतूत से बेहद क्रोधित थे और वो अपने त्रिशूल से सुदेहा का गला काटने के लिए उद्यत थे। घुश्मा ने शिवजी से हाथ जोड़कर विनती की कि वो उसकी बहन को क्षमा कर दें। जो उसने किया है वो जघन्य पाप है लेकिन शिवजी की दया से ही उसे उसका पुत्र वापस मिला है। अब सुदेहा को माफ कर दें। घुश्मा ने शिव जी से प्रार्थना की कि लोक-कल्याण के लिए वो इसी स्थान पर हमेशा के लिए निवास करें। शिवजी ने घुश्मा की दोनों बातें मान लीं और ज्योतिर्लिंग के रूप मे प्रकट होकर वहीं निवास करने लगे। शिवभक्त घुश्मा के आराध्य होने के कारण ही इनका नाम घुश्मेश्वर महादेव पड़ा। इसे घृष्णेश्वर के नाम से भी जाना जाता है।


घृष्णेश्वर मंदिर से जुड़ी कुछ खास बातें

घृष्णेश्वर मंदिर दक्षिण भारतीय स्थापत्य शैली और संरचना से काफी मिलता-जुलता है। लाल पत्थरों से निर्मित यह मंदिर पांच-स्तरीय शिखरों से बना है। मंदिर की दीवारों और छत पर सुंदर नक्काशी की गई है। लाल पत्थर पर भगवान विष्णु के दशावतार की सुंदर नक्काशी की गई है। साथ ही भगवान शिव की कई किंवदंतियां और पौराणिक कथाएं भी उकेरी गई हैं। यहां एक सुंदर प्रांगण है जिसमें 24 खंभे हैं। हॉल और खंभों पर जटिल नक्काशी की गई है। गर्भगृह में पूर्वमुखी लिंग है और गर्भगृह के बाहर भगवान शिव के वाहन नंदी भी विराजित है। 13वीं-14वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत द्वारा इस स्थल को नष्ट कर दिया गया था। इसके बाद मंदिर का पुनर्निर्माण मराठा शासक शिवाजी के दादा, वेरुल के मालोजू भिसाले ने 16वीं शताब्दी में करवाया था। वर्तमान संरचना का निर्माण मुगल साम्राज्य के पतन के बाद 18वीं शताब्दी में इंदौर की रानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा कराया गया था।


घृष्णेश्वर मंदिर में दर्शन करने का सबसे अच्छा मौसम

घृष्णेश्वर मदिंर के दर्शन के लिए सभी मौसम अनुकूल होते हैं लेकिन मंदिर के आस-पास की जगह एक्सप्लोर करने के लिए आप जुलाई से सितंबर तक घृष्णेश्वर मंदिर की यात्रा कर सकते हैं। यह मानसून का मौसम रहता है, जो गर्मियों की चिलचिलाती धूप से राहत देता है। इस दौरान इस क्षेत्र में मध्यम से भारी बारिश होती है, जिससे हरियाली और खिलते फूल आपकी यात्रा को और सुखद बना देंगे। साथ ही आप सर्दियों के महीनों (अक्टूबर से मार्च के बीच) में भी यहां की यात्रा कर सकते हैं।


घृष्णेश्वर मंदिर में दर्शन और आरती का समय

घृष्णेश्वर मंदिर में प्रात: 4 बजे मंगला आरती होती है। इसके बाद मंदिर सुबह 5:30 बजे आम भक्तों के लिए खोल दिया जाता है। दोपहर 12 बजे महाप्रसाद और पूजा होती है जो 1:30 बजे तक चलती है। शाम को 7:30 बजे संध्या आरती होती है और 10:30 बजे रात्रि आरती होती है।


घृष्णेश्वर मंदिर के आसपास घूमने की जगहें

घृष्णेश्वर मंदिर के अलावा आप नीचे दी गई जगहों को भी एक्सप्लोर कर सकते हैं...

अजंता-एलोरा की गुफाएं

भद्रा मारुति मंदिर

औंधा नागनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर

भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग मंदिर

परली वैजनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर

बीबी का मकबरा

सूफी संतों की घाटी


घृष्णेश्वर मंदिर कैसे पहुंचे?

दिल्ली से घृष्णेश्वर मंदिर की दूरी लगभग 1037 किलोमीटर है।


हवाई मार्ग से- यदी आप फ्लाइट से घृष्णेश्वर मंदिर पहुंचना चाहते हैं तो यहां का सबसे नजदीकी एयरपोर्ट औरंगाबाद में है। यहां से दिल्ली, मुंबई, जयपुर और उदयपुर से नियमित उड़ानें हैं। आप फ्लाइट से उतरने के बाद प्राइवेट टैक्सी या बस लेकर आसानी से मंदिर पहुंच सकते हैं।


रेल मार्ग से- आप ट्रेन से भी आसानी से घृष्णेश्वर मंदिर पहुंच सकते हैं। इसके लिए आपको औरंगाबाद रेलवे स्टेशन पहुंचना होगा। इसके अलावा मनमाड रेलवे स्टेशन भी पास में है और वह भी बेहतर तरीके से देश के बाकी राज्यों से जुड़ा हुआ है। रेलवे स्टेशन से प्राइवेट टैक्सी, ऑटो या बस से आप आसानी से मंदिर तक पहुंच सकते हैं।


सड़क मार्ग से- आप सड़क मार्ग से घृष्णेश्वर मंदिर यात्रा करने का प्लान कर रहे हैं तो आपको बता दें औरंगाबाद शहर देश के अधिकांश शहरों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। आप अपनी कार, प्राइवेट टैक्सी और प्राइवेट या सरकारी बस के माध्यम से यहां आसानी से पहुंच पाएंगे। यहां स्थानीय परिवहन आसानी से उपलब्ध है।


घृष्णेश्वर मंदिर के पास इन Hotels में कर सकते हैं स्टे

Ellora heritage resort

Kailas Hotel

Hotel ellora view

Hotel Kanhaiya and Restaurant

Hotel Garima

KGN HomeStay

Hotel Ashoka Resort

Hotel Grand

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उत्पन्ना एकादशी के नियम

उत्पन्ना एकादशी मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि पर मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण त्योहार है। उत्पन्ना एकादशी की उत्पत्ति का उल्लेख प्राचीन भविष्योत्तर पुराण में मिलता है, जहां भगवान विष्णु और युधिष्ठिर के बीच एक महत्वपूर्ण संवाद में इसका वर्णन किया गया है।

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हरि हरि, हरि हरि, सुमिरन करो,
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