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भगवान शिव की महिमा सुनकर एक बार ऋषियों ने सूत जी से कहा- हे सूत जी आपकी अमृतमयी वाणी और आशुतोष भगवान शिव की महिमा सुनकर तो हम परम आनन्दित हुए। हमें कोई शिवजी से सम्बन्धित उत्तम व्रत की कथा विस्तारपूर्वक कहिए। तब सूत जी ने कहा- हे ऋषिगण ! आप लोग सावधान होकर सुनिए, मैं यहाँ एक ऐसी प्राचीन कथा कह रहा हूँ जो किसी समय नारद जी से भगवान विष्णु ने कही थी।
वह एक निषाद की ऐसी अद्भुत कथा है जो प्राणियों के समस्त पापों का नाश करने वाली है, साथ ही जो उत्तम शिवरात्रि का विधान है, यह दृष्टान्त रूप में सुनिये - प्राचीन काल में गुरुद्रह नामक एक भील (निषाद) था, जो व्याध कर्म किया करता था। वह भील महाक्रूर एवं बलवान भी था, वह प्रतिदिन वन में जाकर मृगों का शिकार करता था और अपने परिवार का पालन पोषण व्याध-वृत्ति द्वारा किया करता था। साथ ही घोर वनों में छिपकर चोर-डाकू का काम भी करता था। किसी समय दैवयोग से सुन्दर महाशिवरात्रि-तिथि आ गई परन्तु उस मूढ़ दुरात्मा को क्या पता था? वह अपने कुकर्म में व्यस्त उस घोर जंगल में ही मस्त रहा। तब उसी शिवरात्रि वाले दिन उसकी माता, पिता एवं स्त्री ने भूख से तड़पते हुए उससे कहा- 'अरे वनचर। हमें भोजन दो' आज तो घर में कुछ भी आहार नहीं है।
बार-बार इस प्रकार प्रार्थना करने पर वह व्याध धनुष बाण लेकर शीघ्र ही वन में मृगादि पशु-पक्षियों के शिकार के लिए निकल पड़ा। चारों ओर वन में घूमने पर भी उसे दुर्भाग्यवश कोई शिकार हाथ न लगा। इसी प्रतीक्षा में संध्या हो चली। जब सूर्यास्त होने लगा तब वह बड़ा दुःखी एवं चिन्तित हो गया। वह मन में सोचने लगा-हाय ! आज मुझे कुछ भी शिकार न मिला। अब कहाँ जाऊँ? क्या करूं? मुझे साघ में कुछ न कुछ शिकार लेकर ही जाना चाहिए, नहीं तो मेरा जीना व्यर्थ है। ऐसा सोच-विचार कर वह व्याध किसी जलाशय के तट पर गया और वहीं बैठ गया। वह अपने मन में सोचने लगा- अहो। पानी पीने के लिये यहाँ कोई न कोई जीव-जन्तु अवश्य आएगा, तब उसे मार कर अपने घर ले जाऊँगा और प्रेमपूर्वक अपने कार्य में ऐसा विचार कर वह भील किसी एक बिल्व वृक्ष पर जाल लेकर जा बैठा और प्रतीक्षा करने लगा-देखें कब कोई जन्तु पानी पीने के लिए आता है और कब मैं उसे मारकर कृतार्थ होता हूँ।
इस विचार से वह भूख प्यास से पीड़ित होता हुआ भी वहीं एक डाल पर छिपकर बैठ गया। उसी रात के प्रथम पहर में वहां एक मृगी आ पहुँची। वह अत्यन्त तृषित एवं चकित-सी थी, क्योंकि वह छलाँगें भरती हुई अकेली ही आ रही थी। विष्णु जी कहते हैं- हे नारद! उसे आता देख, वह व्याध बड़ा प्रसन्न हुआ। अतः उसे मारने के लिए उसने अपने धनुष पर तीर चढ़ाया। अब उसे वह मारना ही चाहता था कि इस बीच संयोगवश उसके पात्र का जल तथा कुछ बिल्व पत्र नीचे को आ गिरे, जहां उस पेड़ के नीचे एक शिवलिंग पड़ा था। इस प्रकार अनजाने में ही शिवरात्रि के प्रथम याम की पूजा दैवात स्वयं हो गई। अर्थात उस पापी व्याध द्वारा भी शिवलिंगार्चन जल एवं बिल्व दल के साथ हो गया। उस पूजा के प्रताप से उस पापी के सभी पाप उसी समय नष्ट हो गए।
उस समय जल के गिरने एवं पत्तियों के खड़खड़ाने की आवाज सुनकर वह हिरणी भय से चकित हो गई और व्याध को पेड़ पर देखकर घबरा सी गई और उससे पूछने लगी- हे व्याध! तुम यहाँ क्या करना चाहते हो, सो मुझ से यही सही कहो ? तब हिरणी की बात सुनकर व्याध कहने लगा- मेरा परिवार भूख से तड़प रहा है इसलिए तुझे मार कर उन्हें संतुष्ट करूंगा। उसके ऐसे कठोर वचन सुनकर तथा भयंकर व्याध को देखकर मृगी सोचने लगी- 'हाय! अब मैं क्या करूं, कहां जाऊं? अब प्राण बचाने का कोई उपाय करना चाहिए।' ऐसा सोच विचार कर वह मृगी वहां उस व्याध से कहने लगी- हे व्याध ! यदि मेरे इस शरीर के मांस से तुझे सुख प्राप्त हो तो इससे बढ़कर महान पुण्य और क्या होगा ? मैं निःसंदेह धन्य हूँ- जो किसी के उपकार का साधन बनूंगी, क्योंकि इस संसार में परोपकार से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं है। देखो उपकार करने वाले कृत्य का जो पुण्य कहा गया है, उस पुण्य फल का वर्णन कोई सैंकड़ों वर्ष में भी करने में समर्थ नहीं हो सकता। तथापि हे वनचर ! मेरी एक प्रार्थना सुन लो। देखो, मेरे स्थान में बहुत से मृगछौने हैं- जो अभी बच्चे हैं, उन्हें मैं अपनी बहन को सौंप कर अवश्यमेव आऊँगी।
मेरा वचन तुम मिथ्या मत समझो, मैं अवश्य अपना वचन सत्य करने के लिए तुम्हारे निकट आऊँगी, तुम तनिक भी सन्देह मत करो। सूतजी कहते हैं- है मुनियो ! इस प्रकार मृगी द्वारा समझाने पर भी उस व्याध ने जब उसका वचन नहीं माना, तब चकित एवं भयभीत होकर उस मृगी ने निम्नलिखित प्रतिज्ञा की। हे व्याध ! सुनो, अधिक क्या कहूँ- यदि मैं अपने घर जाकर तेरे पास न आऊँ तो मुझे वही दोष (पातक) लगे, जो कृतघ्न तथा हरि-विमुख जन को लगता है। और भी सुनो - हे निषाद ! विश्वासघाती तथा छल कपट करने वालेव्यक्ति को जो पाप लगता है, वही पाप मुझे भी लगे, यदि मैं घर जाकर पुनः न लौटूं। इस प्रकार अनेक प्रकार से शपथ द्वारा मृगी ने जब व्याध को विश्वास दिलाया, तब उस व्याध ने विश्वस्त होकर कहा- 'अच्छा अब तुम जाओ।'
व्याध के वचन से प्रसन्न हुई हिरणी जल पीकर अपने स्थान को चली गई। तब तक उस व्याध का प्रथम याम बिना अन्न, जल एवं निद्रा के ही बीत गया। इसी बीच उस हिरणी की बहन दूसरी मृगी भी जल पीने के लिए वहीं आ पहुँची। उसे देखकर भील ने भी पूर्ववत् उसके ऊपर बाण छोड़ना चाहा। तब पुनः उसके पात्र से जलधारा तथा कुछ बिल्व पत्र उस शिवलिंग पर आ गिरे। उस समय पुनः प्रसंगवश दैवात् महाप्रभु शंकर की पूजा हो गई। यह द्वितीय याम की शिवपूजा व्याध को सुख देने वाली सिद्ध हुई। यह देखकर वह मृगी उस व्याध से बोली- हे वनचर ! यह तुम क्या कर रहे हो? व्याध ने पूर्ववत् उससे जो कुछ कहा, उसे सुनकर वह नवागता मृगी बोली- हे व्याध! सुनो मैं धन्य हूँ, मेरा यह देह धारण करना सफल है, क्योंकि मेरे इस अनित्य एवं अधम शरीर से एक महान उपकार-कृत्य होगा। किन्तु मेरे छोटे-छोटे छौने जो घर पर हैं, उन्हें में अपने गृहस्वामी (पति) को अर्पित करके पुनः अवश्य लौट आऊंगी, यह सही जानो। मुझे अब जाने दो।
यह सुनकर व्याध ने कहा- मैं तुम्हारी बात नहीं मानता, तुम्हें अवश्य मारूंगा। व्याध की बात सुनकर हिरणी ने शपथ पूर्वक पुनः कहा- हे व्याध ! सुनो, मैं वचन कहती हूँ। यदि न आ सकी तो वचन तोड़ने का प्रायश्चित मुझे लगेगा, उससे मेरा पुण्य नष्ट होगा। हे व्याध ! जो विष्णु भक्त होकर शिव की निन्दा करता है, उसे जो पाप लगता हो, वही मुझे लगे, यदि मैं पुनः न लौटूं। जो मानव माता-पिता की श्राद्ध तिथि को पाकर श्राद्ध नहीं करते, उनको जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे। अथवा वचनबद्ध होकर जो पछता-पछता कर वही काम करता है, तज्जन्य जो पाप होता है वही मुझे भी लगे, यदि मैं कहकर भी पुनः न लौटूं।सूतजी कहने लगे हे मुनियो। मृगी की ऐसी बातें सुनकर व्याध ने उसे भी जाने की अनुमति दे दी। उसने कहा- 'अच्छा, तुम जाओ।' तब वह मृगी भी जल पीकर प्रसन्न होती हुई अपने स्थान को चली गई। तब तक रात्रि का दूसरा पहर भी बिना जल के तथा बिना सोये ही व्यतीत हो गया।
इसी बीच जब तृतीय याम बीतने लगा और मृगी के आने में देर होने लगी, तब वह व्याध चकित होकर उसकी खोज में तत्पर हो गया। इसी बीच उस व्याध की दृष्टि पानी पीने के लिए आते हुए एक मृग पर पड़ी। वह नियाद उस हृष्ट-पुष्ट मृग को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हो गया। अतः उसने धनुष पर बाण चढ़ाकर झट उसे मारना चाहा। उसी समय उसके ऐसा करते ही दैवयोग से पुनः कुछ जल एवं बिल्व पत्र उस शिवलिंग पर जा गिरे, जिससे तृतीय याम की पूजा सौभाग्यवश हो गयी। यह भूतभावन शिव की अहैतु की कृपा थी। वहाँ पर उस शब्द को सुनकर मृग ने कहा- अरे । यह तुम क्या कर रहे हो। तब उस व्याध ने कहा- अपने परिवार पालन के लिए तुम्हें मैं मारना चाहता हूँ। सूतजी ने कहा- हे मुनियो । व्याध की बातें सुनकर वह प्यासा मृग चिन्तित होकर उस व्याध से इस प्रकार कहने लगा- अहो। मैं आज धन्य हूँ, जो मेरा यह पुष्ट शरीर संसार की तृप्ति के लिए होगा क्योंकि जिसका शरीर परोपकार में न लगा, उसका सारा जीवन व्यर्थ ही हो गया। जो सामार्थ्य पाकर भी दूसरे का उपकार नहीं करता, उसका सामर्थ्य व्यर्थ है, वह परलोक में अवश्य नरकगामी होता होता है। इसलिए हे व्याध ! इस समय मुझे छोड़ दो। मैं अपने उन छोटे बच्चों को उनकी माता के हाथ सौंपकर तथा उन्हें धैर्य देकर पुनः शीघ्र ही लौटूंगा, इसमें तनिक भी सन्देह न करो।
उस मृग के निष्कपटभाव से ऐसा कहने पर वह व्याध अपने मन में अत्यन्त चकित होकर तत्काल पवित्र मन वाला हो गया और उसके सभी पाप नष्ट हो गये। तब वह पुनः मृग से इस प्रकार कहने लगा- इसके पूर्व भी जो जो मृग आये, वे सभी तुम्हारे ही समान मुँह से कहकर अभी तक पुनःलौटे नहीं। यह कितनी भारी प्रवंचना है। उन्हीं वचनों की भाँति तुम भी इस संकट काल में पिण्ड छुड़ाने के लिए झूठ बोल कर चले जाओगे, तब हे मृग । भला तुम्हीं बताओ, मेरी आजीविका कैसे चलेगी? क्योंकि मेरे कुटुम्बी भी भूख-प्यास से घर पर तड़पते होंगे। तब मैं कैसे विश्वास करूँ ? यह सुनकर मृग ने कहा- हे वनचर सुनो, मैं सत्य कहता हूँ, मिथ्यावादी नहीं हूँ। देखो हे व्याध ! ये समस्त ब्रह्माण्ड सत्य के बल पर ही टिके हैं, क्योंकि इस संसार में जिसकी वाणी मिथ्या होती है, उसके सभी पुण्य तत्काल क्षीण हो जाते हैं। तो भी हे भील! तुम मेरी सत्य प्रतिज्ञा निश्चय ही सुन लो ! देखो, जिसके मुख से 'शिव' शब्द न निकले, या सामर्थ्य होते हुए भी परोपकार न करे, पर्व के दिन श्रीफल तोड़ने तथा अभक्ष्य भक्षण करने में जो पाप होता है, वह मुझे लगे, हे निषाद। जो शिवजी का पूजन नहीं करते, जो बिना भस्म त्रिपुण्ड लगाए ही अन्नाहार करते हैं, ऐसे पापियों का दोष मुझे लगे, यदि मैं जाकर पुनः न लौटूं। सूतजी कहते हैं- हे मुनियो ! मृग की सत्य वाणी सुनकर व्याध ने उससे भी कहा 'अच्छा जाओ, पर शीघ्र ही लौट आओ।'
यह सुनकर मृग ने वहाँ पानी पिया और चल दिया। मृग ने जाकर व्याध का वचन सबसे कह सुनाया, तब उन सभी मृगों ने आपस में विचार करके एक मत होकर, संगठित रूप से अपने स्थान पर ही प्रतिज्ञा कर ली कि सत्य से बढ़कर संसार में कुछ भी नहीं है। अतः हम लोगों को सत्यपाश से नियंत्रित होकर निश्चय ही वहाँ जाना चाहिए।
तब वे सभी मृग अपने बालकों को वहीं धैर्य प्रदान करके व्याध के पास चलने को तैयार हो गये। उस मृग की कई पत्नियाँ थीं। उनमें जो सबसे बड़ी थी, उसने पहले अपने स्वामी से कहा- हे स्वामी ! आप यहीं रह जायें, क्योंकि आपके बिना यह बच्चे कैसे ठहर सकेंगे ? दूसरी बात यह है कि मैंने वहां सर्वप्रथम जाने का शपथ ग्रहण किया था। इस कारण मुझे ही पहले वहां जाना चाहिए, आप यहीं रहिये। उसकी यह वाणी सुनकर छोटी मृगी बोल उठी- 'प्रभो ! मैं आपकी दासी हूँ, अतःही वहां जा रही हूँ, आप यही रहें।' उसकी विनती सुनकर मृग ने पुनः कहा- नहीं-नहीं, वहां मुझे ही जाना चाहिए। तुम दोनों यहां पर रह जाओ, क्योंकि शिशु रक्षा का कार्य माता ही भली-भांति कर सकती है।
अपने स्वामी का वचन सुनकर उन मृगियों ने प्रेम से कहा- नहीं प्रभो! यह भारतीय धर्म मर्यादा के विरुद्ध है कि पत्नी के रहते पति पहले मरे, क्योंकि बिना पति के स्त्रियों के वैधव्य जीवन को धिक्कार है। हम सभी चलेंगे। ऐसा विचार विमर्श करके वे (मृगी तथा मृग) अपने बच्चों को धैर्य देकर तथा उन्हें अपने सहवासी किसी अन्य पशु को सौंपकर सभी वहां शीघ्र चले गए, जहां वह निषाद था। उनके चले जाने पर हिरणी के बच्चे भी उनके खुर-चिन्हों के अनुसार उछलते-कूदते वहां तक जा पहुँचे। क्योंकि उन मृग छौनों ने अपने मन में ठीक ही सोच लिया था कि 'उनकी जैसी गति होगी, वैसी हम लोगों की होवे। उन मृग झुण्डों को देखकर व्याध बड़ा प्रसन्न हुआ।
अतः उन्हें मारने के लिए ज्योंही धनुष पर तीर चढ़ाया, त्योंही पूर्ववत पुनः कुछ जल एवं बिल्व पत्र उस शिवलिंग पर गिर पड़े। है। जिससे उस रात्रि के चौथे पहर की पूजा अचानक हो गई। इस प्रकार उस व्याध के सभी पाप क्षण भर में में जल कर भस्म हो गए। अर्थात् वह निषाद अब निष्पाप हो गया। उस समय उन दोनों मृगियों तथा उस मृग ने साथ ही कहा- 'हे व्याध वर ! आप कृपा करके हम लोगों के जीवन सार्थक करें।'
सूतजी कहते हैं- हे मुनियों! इस प्रकार उन मृगों के वचन सुनकर व्याध दुष्प्राप्य सज्ञान का भागी बन गया और अपने मन में सोचने लगा- 'अहो! ये मृग धन्य हैं, जो ज्ञानहीन पशु होते हुए भी संगठित हैं और अपने शरीर का त्याग करके भी परोपकार परायण हो रहे हैं। अत्यंत दुख की बात है कि मैंने मनुष्य जीवन पाकर भी कौन-सा पुण्य कमाया क्योंकि आज तक दूसरों के शरीर को कष्ट देकर ही तो मैंने अपने शरीर को पाला- पोसा। यही नहीं, बल्कि अनेकानेक पापों द्वारा नित्य अपने परिवार का पालन पोषण किया हाय ।
जन्म भर अपने किये हुए दुष्कर्मों का कैसा कुफल मैं पाऊँगा। इस समय इस प्रकार चिन्ता करते हुए मेरे इस जीवन को धिक्कार है।' इस प्रकार सज्ञान उत्पन्न होने पर उस व्याध ने अपना बाण एवं धनुष उतारते हुए उस समय कहा- 'हे श्रेष्ठ मृग गण । तुम धन्य हो, अतः अब आनन्दपूर्वक अपने स्थान की ओर जाओ।' सूतजी कहते हैं- हे मुनियों! व्याध के ऐसा कहने पर शिवजी ने उस पर प्रसन्न होकर, उसके द्वारा अनजाने में भी पूजित अपने सर्वमान्य दिव्य स्वरूप का प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उस व्याध को अपने हाथों से स्पर्श करते हुए शिवजी प्रेमपूर्वक बोले-'ऐ प्रिय निषाद !
तुम्हारे इस विचित्र शिवरात्रि व्रत से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ। अतः कोई वर माँगो।' उस समय वह व्याध भी साक्षात् शिव के दर्शन से तत्काल मुक्त हो गया और "मैं सब कुछ पा गया" ऐसा कहते हुए शिवजी के आगे उनके चरणों पर गिर गया। तब शिवजी ने भी अत्यन्त प्रसन्न होकर 'गुह' नाम प्रदान करते हुए, उसे कृपा दृष्टि से देखते हुए अनेक उत्तम वरदान दिए।
शिवजी ने कहा- 'हे निषाद राज सुनो, आज से तुम श्रृंङ्गवेर पुर में जाकर उसे अपनी राजधानी बनाओ और अनेक प्रकार के दिव्य यथेष्ठ दुर्लभ भोगों का उपभोग करो। देखो, हे निषाद ! निर्विघ्न वंश वृद्धि देवताओं द्वारा भी प्रशंसित है। तुम्हारे तप से पवित्र तेरे घर में किसी समय श्री राम भी निश्चित ही आएँगे। मेरे भक्तों के साथ स्नेह रखने वाले वे 'राम' आकर तुम्हारे साथ मैत्री करेंगे और मेरी सेवा से आसक्त चित्त वाले तुम अवश्य देव दुर्लभ मुक्ति प्राप्त करोगे।
सूतजी कहते हैं- हे मुनिवृन्द ! इसी बीच श्रीशंकर जी का दर्शन कर, वे सभी मृग तत्काल पशु योनि का परित्याग करके विमुक्त हो गए, अर्थात् दिव्य विमान पर दिव्य शरीर से बैठ कर वे सभी मृग उसी समय पूर्वशाप से मुक्त होकर स्वर्ग लोक को चले गए। उधर पुनः विष्णु भगवान नारद से कहने लगे- 'हे मुने ! वहाँ अर्बुद पर्वत पर शिवजी व्याधेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। जो दर्शन एवं पूजन मात्र से शिव भक्तों को भक्ति-मुक्ति प्रदान करते हैं। हे मुनिवर नारद । उसी दिन से वह निषाद भी अनेक दिव्य भोगों को भोग करके भगवान 'राम' की अनुकम्पा से शिव सायुज्य प्राप्त कर संसार से मुक्त हो गया। इस प्रकार अज्ञानतावश भी उसने शिव व्रत के प्रताप से यदि सायुज्य मुक्ति तक को प्राप्त कर लिया, तो फिर अन्य भक्तों की क्या कथा है ? वे तो तन्मय होकर साक्षात् शिव-स्वरूप ही हो जाते हैं। इसलिए हे मुनियों ! सब शास्त्रों को विचारकर तथा अनेकानेक तीर्थ, दान तथा अनेक प्रकार के विचित्र एवं पवित्र यज्ञ भी हैं। सर्वोत्तम व्रत भी हैं। यद्यपि यहाँ अनेक व्रत विधान, अनेक तीर्थ, दान तथा अनेक प्रकार के जप, तप, संयम, नियम भी हैं, तथापि उनमें कोई भी इस 'शिवरात्रि' व्रत के समान नहीं है, यह शास्त्र-पुराणों का निश्चित निर्णय है। इसलिए अपनी भलाई चाहने वालों को चाहिए कि इस शुभ व्रत का पालन अवश्य करें। क्योंकि यह दिव्य शिवरात्रि व्रत सर्वदा साधक को भक्ति-मुक्ति देने वाला है।
सूतजी कहने लगे- हे ऋषिगणों । यह कल्याणप्रद 'शिवरात्रि व्रत' मैंने आप लोगों को सुना दिया है, जो संसार में 'व्रतराज' के नाम से प्रसिद्ध है। ऋषियों ने पुनः पूछा- हे सूतजी! अभी आपने 'मुक्ति' की चर्चा की है। उसमें क्या होता है और मुक्त हुए पुरुषों की कैसी दशा (स्थिति) होती है? यह भी हम लोगों को बताइये। तब सूतजी ने कहा- हे मुनियों। सावधान होकर सुनें, मैं कह रहा हूँ। संसार के क्लेश (आवागमन) को हरने वाली तथा परमानन्द देने वाली वह मुक्ति चार प्रकार की कही गई है। १ सारूप्य (भगवान के समान रूप होना), 2. सालोक्य (भगवान के लोक में रहना), 3. सान्निध्य (भगवान के निकट पार्षद बनकर रहना) तथा 4. सायुज्य मुक्ति (भगवान में मिल जाना)। यह चौथी मुक्ति शिवरात्रि व्रत से प्राप्त होती है, जो चारों में उत्तम है
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