प्राचीन भारतीय ग्रंथों में सिंधु के नाम से जानी जाने वाली सिंधु नदी हिंदू पौराणिक कथाओं और इतिहास का केंद्र रही है। यह पाकिस्तान और भारत के उत्तरी क्षेत्रों से होकर बहती है। ऐतिहासिक रूप से, इसी नदी के तट पर प्रारंभिक सिंधु घाटी सभ्यता की शुरुआत हुई थी। सिंधु नदी का उल्लेख सबसे पुराने वैदिक ग्रंथ - ऋग्वेद में भी मिलता है, जो हिंदू संस्कृति में शुरुआती समय से ही इसके महत्व को दर्शाता है। भारत का नाम हिंदुस्तान होने के पीछे भी सिंधु नदी से जुड़ी हुई कथा है। सिंधु नदी का उद्गम स्थान पश्चिमी तिब्बत में है और ये कश्मीर के लद्दाख और गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्रों से होती हुई उत्तर-पश्चिम में बहती है। अपने उद्गम से निकलकर तिब्बती पठार की चौड़ी घाटी में से होती हुई सिंधु नदी कश्मीर की सीमा को पार कर, दक्षिण पश्चिम में पाकिस्तान के रेगिस्तान और सिंचित भूभाग में बहती हुई, करांची के दक्षिण में अरब सागर में गिरती है।
माना जाता है कि इस नदी के किनारे ही वैदिक धर्म और संस्कृति का उद्गम और विस्तार हुआ है। वाल्मीकि रामायण में सिन्धु को महानदी की संज्ञा दी गई है। जैन ग्रंथ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में भी सिन्धु नदी का वर्णन मिलता है। सिंधु नदी ने पूर्व में अपना कई बार रास्ता भी बदला है।
सिंधु नदी का धार्मिक महत्व
सिंधु नदी के धार्मिक महत्व की बात की जाए तो भारतीय संस्कृति और सभ्यता का अपनी गोद में पालन- पोषण करने वाली इस नदी के तट पर कई ऋषि- मुनियों ने तपस्या की, धार्मिक मान्यता के अनुसार इसी नदी के तट पर बैठ कर कई वेद- पुराणों की रचना भी हुई है। इतिहास में इस नदी का उद्गम कैलाश पर्वत के उत्तर में करीब पांच हजार मीटर की ऊंचाई पर माना जाता है।
सरस्वती नदी के दो भाग
शोधानुसार ये भी कहा जाता है कि जब प्राकृतिक आपदा के कारण सरस्वती नदी लुप्त हुई तो वह मुख्यतः दो भागों में विभक्त हो गई। पहली सिंधु और दूसरी गंगा। कहते हैं कि सरस्वती लगभग 21 हजार वर्ष पूर्व अपने शबाब पर थी। तब उसकी चौड़ाई लगभग 22 किलोमीटर की होती थी। रामायण काल में जो शतलज नदी पश्चिम में मुड़कर बहती थी वह सरस्वती में आकर मिलती थी। महाभारत में मिले वर्णन के अनुसार सरस्वती नदी हरियाणा में यमुनानगर से थोड़ा ऊपर और शिवालिक पहाड़ियों से थोड़ा-सा नीचे आदिबद्री नामक स्थान से निकलती थी। रेगिस्तान में उतथ्य मुनि के शाप से भूगर्भित होकर सरस्वती लुप्त हो गई और पर्वतों पर बहने लगी। महाभारत में सरस्वती नदी के मरुस्थल में 'विनाशन' नामक जगह पर विलुप्त होने का वर्णन है।
आरति श्रीवृषभानुलली की, सत-चित-आनन्द कन्द-कली की॥
भयभन्जिनि भवसागर-तारिणी, पाप-ताप-कलि-कलुष-निवारिणी,
आरती श्री जनक दुलारी की, सीताजी श्रीरघुवर प्यारी की॥
आरती श्री जनक दुलारी की, सीताजी श्रीरघुवर प्यारी की॥
ॐ जय यमुना माता, हरि ॐ जय यमुना माता।
जो नहावे फल पावे, सुख सम्पत्ति की दाता॥
जय जय भगीरथ-नंदिनी, मुनि-चय चकोर-चन्दिनी,
नर-नाग-बिबुध-वंदिनी, जय जह्नुबालिका।