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पवित्र ग्रंथ दुर्गा सप्तशती में देवी अर्गला का पाठ देवी कवचम् के बाद और कीलकम् से पहले किया जाता है। अर्गला को शक्ति के रूप में व्यक्त किया जाता है और यह चण्डी पाठ का महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। अर्गलास्तोत्र में भगवती को काम क्रोध और शत्रुओं का नाश करने वाली देवी के रूप में उनके विजय की गाथा का वर्णन है। महिषासुर का वध, रक्त बीज का वध, शुंभ-निशुंभ और ऐसे बहुत से असुरों के वध का वर्णन है। अर्गलास्तोत्र के पाठ करने वाले प्राणी को देवी दुर्गा की कृपा से संपत्ति प्राप्त हो सकती है, शत्रुओं का नाश हो सकता है और देवी की कृपा से धनवान हो सकता है। अर्गला स्त्रोत का पाठ करने वाला प्राणी का परिवार उत्तम सुख को प्राप्त करता है और समाज में विशेष प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है। अर्गलास्तोत्र के अनुसार जो मनुष्य इस स्तोत्र का पाठ करके सप्तशतीरूपी महास्तोत्र का पाठ करता है , वह सप्तशती की जप- संख्या से मिलनेवाले श्रेष्ठ फल को प्राप्त होता है । साथ ही वह प्रचुर सम्पत्ति भी प्राप्त कर लेता है।
वैसे तो नवरात्रि के नौ दिनों में इसका पाठ करना चाहिए। लेकिन महासप्तमी के दिन अथार्गलास्तोत्रम् का पाठ करने से माता प्रसन्न होती हैं और अपना आशीर्वाद देती हैं। इसके अलावा शुक्रवार का दिन भी मातारानी का होता है, आप इस दिन भी इस स्तोत्र का पाठ कर सकते हैं। इसके अलावा शुभ समय की बात करें तो ब्रह्ममुहूर्त में अथार्गलास्तोत्रम् का पाठ करना शुभ फलदायी होता है। लेकिन ध्यान रहे कि राहु काल के दौरान पाठ नहीं करना चाहिए। इसके अलावा आप नीचे दिए गए समय में भी पाठ कर सकते हैं-
1. मनुष्य जिस भी कर्म की कामना करता है, वह सभी कार्य केवल अर्गला स्तोत्र के पाठ से ही पूर्ण हो जाते हैं।
2. इस पाठ से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है।
3. परिवार में सुख और शांति बनी रहती है, आकस्मिक धन की प्राप्ति होती है।
4. बुरे ग्रहों विशेषकर राहु के प्रकोप से छुटकारा मिलता है।
5. देवी कवच के माध्यम से पहले चारों ओर सुरक्षा का एक चक्र बनाया जाता है और फिर उसके बाद विजयश्री की कामना के लिए अर्गला स्त्रोत्र के माध्यम से देवी भगवती से प्रार्थना की जाती है।
6. अर्गला स्तोत्र अचूक है। यह रूप, महिमा, सफलता देने वाला है। नवरात्रि में इसे पढ़ने का एक विशेष विधान और महत्व है।
7. यदि विवाह में बाधा आ रही है, तो जातक को इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिए, इसका पाठ करने से शीघ्र विवाह हो जाता है।
8. इस स्तोत्र के पाठ से रोगों का नाश होता है।
ॐ अस्य श्रीअर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुर्ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहालक्ष्मीर्देवता, श्रीजगदम्बाप्रीतयेसप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः॥
ॐ नमश्चण्डिकायै॥
मार्कण्डेय उवाच
ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥1॥
जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते॥2॥
मधुकैटभविद्राविविधातृवरदे नमः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥3॥
महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे नमः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥4॥
रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥5॥
शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥6॥
वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥7॥
अचिन्त्यरुपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥8॥
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥9॥
स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥10॥
चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥11॥
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥12॥
विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥13॥
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥14॥
सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥15॥
विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥16॥
प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥17॥
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥18॥
कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥19॥
हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥20॥
इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥21॥
देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥22॥
देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥23॥
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥24॥
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः।
स तु सप्तशतीसंख्यावरमाप्नोति सम्पदाम्॥25॥
॥ इति देव्या अर्गलास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥