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Banasur Krit Shiv Stotram (बाणासुरकृतं शिवस्तोत्रम्)

Banasur Krit Shiv Stotram (बाणासुरकृतं शिवस्तोत्रम्)

बाणासुरकृतं शिवस्तोत्रम् हिंदी अर्थ सहित

बाणासुर उवाच

वन्दे सुराणां सारं च सुरेशं नीललोहितम् ।
योगीश्वरं योगबीजं योगिनां च गुरोर्गुरुम् ॥ १ ॥
ज्ञानानन्दं ज्ञानरूपं ज्ञानबीजं सनातनम् ।
तपसां फलदातारं दातारं सर्वसम्पदाम् ॥ २ ॥
तपोरूपं तपोबीजं तपोधनधनं वरम् ।
वरं वरेण्यं वरदमीड्यं सिद्धगणैर्वरैः ॥ ३ ॥
कारणं भुक्तिमुक्तीनां नरकार्णवतारणम्।
आशुतोषं प्रसन्नास्यं करुणामयसागरम् ॥ ४ ॥
हिमचन्दनकुन्देन्दुकुमुदाम्भोजसंनिभम्
ब्रह्मज्योतिः स्वरूपं च भक्तानुग्रहविग्रहम् ॥ ५ ॥
विषयाणां विभेदेन बिभ्रन्तं बहुरूपकम् ।
जलरूपमग्निरूपमाकाशरूपमीश्वरम् ॥ ६ ॥
वायुरूपं चन्द्ररूपं सूर्यरूपं महत्प्रभुम्।
आत्मनः स्वपदं दातुं समर्थमवलीलया ॥ ७ ॥
भक्तजीवनमीशं च भक्तानुग्रहकातरम् ।
वेदा न शक्ता यं स्तोतुं किमहं स्तौमि तं प्रभुम् ॥ ८ ॥
अपरिच्छिन्नमीशानमहो वाङ्मनसोः परम् ।
व्याघ्रचर्माम्बरधरं वृषभस्थं दिगम्बरम् ।
त्रिशूलपट्टिशधरं सस्मितं चन्द्रशेखरम् ॥ ९ ॥
इत्युक्त्वा स्तवराजेन नित्यं बाणः सुसंयतः ।
प्रणमेच्छङ्करं भक्त्या दुर्वासाश्च मुनीश्वरः ॥ १० ॥
इदं दत्तं वसिष्ठेन गन्धर्वाय पुरा मुने ।
कथितं च महास्तोत्रं शुलिनः परमाद्भुतम् ॥ ११ ॥
इदं स्तोत्रं महापुण्यं पठेद् भक्त्या च यो नरः ।
स्नानस्य सर्वतीर्थानां फलमाप्नोति निश्चितम् ॥ १२ ॥
अपुत्रो लभते पुत्रं वर्षमेकं शृणोति यः ।
संयतश्च हविष्याशी प्रणम्य शङ्करं गुरुम् ॥ १३॥
गलत्कुष्ठी महाशूली वर्षमेकं शृणोति यः ।
अवश्यं मुच्यते रोगाद् व्यासवाक्यमिति श्रुतम् ॥ १४॥
कारागारेऽपि बद्धो यो नैव प्राप्नोति निर्वृतिम् ।
स्तोत्रं श्रुत्वा मासमेकं मुच्यते बन्धनाद् ध्रुवम्॥ १५ ॥
भ्रष्टराज्यो लभेद् राज्यं भक्त्या मासं शृणोति यः ।
मासं श्रुत्वा संयतश्च लभेद् भ्रष्टधनो धनम् ॥ १६ ॥
यक्ष्मग्रस्तो वर्षमेकमास्तिको यः शृणोति चेत् ।
निश्चितं मुच्यते रोगाच्छङ्करस्य प्रसादतः ॥ १७ ॥
यः शृणोति सदा भक्त्या स्तवराजमिमं द्विज
तस्यासाध्यं त्रिभुवने नास्ति किंचिच्च शौनक ॥ १८ ॥
कदाचिद् बन्धुविच्छेदो न भवेत् तस्य भारते ।
अचलं परमैश्वर्यं लभते नात्र संशयः ॥ १९॥
सुसंयतोऽतिभक्त्या च मासमेकं शृणोति यः ।
अभार्यों लभते भार्या सुविनीतां सतीं वराम् ॥ २०॥
महामूर्खश्च दुर्मेधो मासमेकं शृणोति यः ।
बुद्धिं विद्यां च लभते गुरूपदेशमात्रतः ॥ २१ ॥
कर्मदुःखी दरिद्रश्च मासं भक्त्या शृणोति यः ।
ध्रुवं वित्तं भवेत् तस्य शङ्करस्य प्रसादतः ॥ २२ ॥ 
इहलोके सुखं भुक्त्वा कृत्वा कीर्ति सुदुर्लभाम् ।
नानाप्रकारधर्म च यात्यन्ते शङ्करालयम् ॥ २३ ॥
पार्षदप्रवरो भूत्वा सेवते तत्र शङ्करम् ।
यः शृणोति त्रिसंध्यं च नित्यं स्तोत्रमनुत्तमम् ॥ २४ ॥

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे बाणादिगम्बरम् ।सुरकृतं शिवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

भावार्थ - 

बाणासुर बोला- जो देवताओंके सारतत्त्वस्वरूप और

समस्त देवगणोंके स्वामी हैं, जिनका वर्ण नील और लोहित है,

जो योगियोंके ईश्वर, योगके बीज तथा योगियोंके गुरुके भी गुरु

हैं, उन भगवान् शिवकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ १ ॥

जो ज्ञानानन्दस्वरूप, ज्ञानरूप, ज्ञानबीज, सनातन देवता,

समस्त तपस्याओंके फलदाता तथा सम्पूर्ण सम्पदाओंको देनेवाले

हैं, उन भगवान् शंकरको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ २ ॥

जो तपःस्वरूप, तपस्याके बीज, तपोधनोंके श्रेष्ठ धन, श्रेष्ठ

वरणीय तथा वरदायक और श्रेष्ठ सिद्धगणोंके द्वारा स्तवन करने-

योग्य हैं, उन भगवान् शंकरको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ३ ॥

जो भोग और मोक्षके कारण, नरक समुद्रसे पार उतारनेवाले,

शीघ्र प्रसन्न होनेवाले, प्रसन्नमुख तथा करुणाके सागर हैं, उन

भगवान् शिवको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ४ ॥

जिनकी अंगकान्ति हिम, चन्दन, कुन्द, चन्द्रमा, कुमुद तथा

श्वेत कमलके सदृश उज्वल है, जो ब्रह्मज्योतिः स्वरूप तथा

भक्तों पर अनुग्रह करनेके लिये विभिन्न रूप धारण करनेवाले हैं,

उन भगवान् शंकरको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ५ ॥

जो विषयोंके भेदसे बहुतेरे रूप धारण करते हैं; जल, अग्नि,

आकाश, वायु, चन्द्रमा और सूर्य जिनके स्वरूप हैं, जो ईश्वर

(जगन्नियन्ता परमेश्वर) एवं महात्माओंके प्रभु हैं और लीलापूर्वक अपना

पद देनेकी शक्ति रखते हैं, जो भक्तोंके जीवन हैं तथा भक्तों पर कृपा

करनेके लिये कातर हो उठते हैं । वेद भी जिनका स्तवन करनेमें

असमर्थ हैं, उन परमेश्वर प्रभुकी मैं क्या स्तुति करूँगा ? ॥ ६-८ ॥

अहो ! जो ईशान देश, काल और वस्तुसे परिच्छिन्न नहीं हैं तथा

मन और वाणीकी पहुँचसे परे हैं। जो बाघम्बरधारी अथवा दिगम्बर

हैं,बैलपर सवार हो त्रिशूल और पट्टिश धारण करते हैं, उन मन्द मुसकानकी

आभासे सुशोभित मुखवाले भगवान् चन्द्रशेखरको मैं प्रणाम करता हूँ॥ ९ ॥

यों कहकर बाणासुर प्रतिदिन संयमपूर्वक रहकर स्तवराजसे

भगवान्‌की स्तुति करता था और भक्तिभावसे शंकरजीके चरणोंमें

मस्तक झुकाता था। मुनीश्वर दुर्वासा भी ऐसा ही करते थे ॥ १० ॥

हे मुने ! वसिष्ठजीने पूर्वकालमें त्रिशूलधारी शिवके इस परम

महान् अद्भुत स्तोत्रका गन्धर्वको उपदेश दिया था। जो मनुष्य

भक्तिभावसे इस परम पुण्यमय स्तोत्रका पाठ करता है, वह

निश्चय ही सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नानका फल पा लेता है ॥ ११-१२ ॥

जो हविष्य खाकर संयमपूर्वक रहते हुए जगद्गुरु शंकरको

प्रणाम करके एक वर्षतक इस स्तोत्रको सुनता है, वह पुत्रहीन

हो तो अवश्य ही पुत्र प्राप्त कर लेता है ॥ १३ ॥

जिसको गलित कोढ़का रोग हो या उदरमें बड़ा भारी शूल

उठता हो, वह यदि एक वर्षतक इस स्तोत्रको सुने तो अवश्य

ही उस रोगसे मुक्त हो जाता है। यह बात मैंने व्यासजीके मुँहसे

सुनी है ॥ १४॥

जो कैदमें पड़कर शान्ति न पाता हो, वह भी एक मासतक इस

स्तोत्रको श्रवण करके अवश्य ही बन्धनसे मुक्त हो जाता है ॥ १५ ॥

जिसका राज्य छिन गया हो, ऐसा पुरुष यदि भक्तिपूर्वक एक

मासतक इस स्तोत्रका श्रवण करे तो अपना राज्य प्राप्त कर लेता

है। एक मासतक संयमपूर्वक इसका श्रवण करके निर्धन मनुष्य

धन पा लेता है ॥ १६ ॥

राजयक्ष्मासे ग्रस्त होनेपर जो आस्तिक पुरुष एक वर्षतक

इसका श्रवण करता है, वह भगवान् शंकरके प्रसादसे निश्चय

ही रोगमुक्त हो जाता है ॥ १७॥

द्विज शौनक ! जो सदा भक्तिभावसे इस स्तवराजको सुनता है,

उसके लिये तीनों लोकोंमें कुछ भी असाध्य नहीं रह जाता ॥ १८ ॥

भारतवर्षमें उसको कभी अपने बन्धुओंसे वियोगका दुःख

नहीं होता। वह अविचल एवं महान् ऐश्वर्यका भागी होता है,

इसमें संशय नहीं है ॥ १९ ॥

जो पूर्ण संयमसे रहकर अत्यन्त भक्तिभावसे एक मासतक इस

स्तोत्रका श्रवण करता है, वह यदि भार्याहीन हो तो अति विनयशील

सती साध्वी सुन्दरी भार्या पाता है ॥ २० ॥

जो महान् मूर्ख और खोटी बुद्धिका है, ऐसा मनुष्य यदि इस

स्तोत्रको एक मासतक सुनता है तो वह गुरुके उपदेशमात्रसे बुद्धि

और विद्या पाता है ॥ २१ ॥

जो प्रारब्धकर्मसे दुःखी और दरिद्र मनुष्य भक्तिभावसे इस

स्तोत्रका श्रवण करता है, उसे निश्चय ही भगवान् शंकरकी कृपासे

धन प्राप्त होता है ॥ २२ ॥

जो प्रतिदिन तीनों संध्याओंके समय इस उत्तम स्तोत्रको सुनता है,

वह इस लोकमें सुख भोगकर, परम दुर्लभ कीर्ति प्राप्त करके और नाना

प्रकारके धर्मका अनुष्ठान करके अन्तमें भगवान् शंकरके धामको जाता है,

वहाँ श्रेष्ठ पार्षद होकर भगवान् शिवकी सेवा करता है ॥ २३-२४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणमें बाणासुरकृत शिवस्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ॥

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