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Shri Gaurishwar Stuti (गौरीश्वरस्तुतिः)

Shri Gaurishwar Stuti (गौरीश्वरस्तुतिः)

गौरीश्वरस्तुति हिंदी अर्थ सहित

दिव्यं वारि कथं यतः सुरधुनी मौलौ कथं पावको

दिव्यं तद्धि विलोचनं कथमहिर्दिव्यं स चाङ्गे तव ।

तस्माद्द्यूतविधौ त्वयाद्य मुषितो हारः परित्यज्यता-

मित्थं शैलभुवा विहस्य लपितः शम्भुः शिवायास्तु वः ॥ १॥

श्रीकण्ठस्य सकृत्तिकाऽऽर्तभरणी मूर्तिः सदा रोहिणी

ज्येष्ठा भाद्रपदा पुनर्वसुयुता चित्रा विशाखान्विता ।

दिश्यादक्षतहस्तमूलघटिताषाढा मघालङ्कृता

श्रेयो वैश्रवणान्विता भगवतो नक्षत्रपालीव वः ॥ २॥

एषा ते हर का सुगात्रि कतमा मूर्घ्नि स्थिता किं जटा

हंसः किं भजते जटां न हि शशी चन्द्रो जलं सेवते ।

मुग्धे भूतिरियं कुतोऽत्र सलिलं भूतिस्तरङ्गायते

एवं यो विनिगूहते त्रिपथगां पायात्स वः शङ्करः ॥ ३॥

इति गौरीश्वरस्तुतिः समाप्ता ।

नन्दिस्तवः

कण्ठालङ्कारघण्टाघणघणरणिताध्मातरोदः कटाहः

कण्ठेकालाधिरोहोचितघनसुभगंभावुकस्निग्धपृष्ठः ।

साक्षाद्धर्मो वपुष्मान् धवलककुदनिर्धत कैलासकूटः

कूटस्थो वः ककुद्यान्निविडतरतमःस्तोमतृण्यां वितृण्यात् ॥ १ ॥

॥ इति नन्दिस्तवः सम्पूर्णः ॥

भावार्थ - 

एक बार माता पार्वती शिवजी से हँसकर बोलीं—

"प्रभो! गंगा तो आपके जटाजूट में निवास कर रही हैं, फिर आकाश से यह जल कहाँ से आ रहा है? आपका तीसरा नेत्र ही अग्नि का कार्य करता है, फिर अलग से यह अग्नि कहाँ से उत्पन्न हो गई है? साँप तो आपके देह पर आभूषण के रूप में हैं, फिर ये अन्य सर्प कहाँ से आ गए हैं? इससे तो यही लगता है कि आज द्यूत-क्रीड़ा (जुए) के समय आपने ही मेरा हार चुराया है, कृपया उसे लौटा दीजिए।"

इस प्रकार भगवती पार्वती के साथ हास्ययुक्त वार्तालाप करने वाले भगवान् शम्भु आप सबके लिए कल्याणकारक हों। ॥१॥

भगवान श्रीकण्ठ की मूर्ति गजचर्म से सुशोभित है, अर्थात वह कृत्तिका नक्षत्र से युक्त है। वह प्राणियों की रक्षा करनेवाली तथा भरण-पोषण करनेवाली है, इसलिए वह आर्द्रा और भरणी नक्षत्र से युक्त है। वह मूर्ति कमण्डलु धारण करनेवाली होने से रोहिणी नक्षत्रयुक्त है, सर्वोत्तम होने से ज्येष्ठा कहलाती है और पद-पद पर कल्याण प्रदान करनेवाली होने से भाद्रपदा है।

निरन्तर धन-संपत्ति प्रदान करनेवाली होने से वह पुनर्वसु है; देखने में विचित्र होने से चित्रा तथा भगवान् कार्तिकेय से युक्त होने के कारण विशाखा नक्षत्र से भी संयुक्त है। हाथ में अभयमुद्रा धारण करने के कारण हस्त, सृष्टिप्रपंच का मूल कारण होने से मूल, मलयगिरि के चन्दन से लेपित होने के कारण आषाढ़ा-द्वय (पूर्वाषाढ़ और उत्तराषाढ़), स्मरण मात्र से रोगों का नाश करने के कारण मघा, तथा श्रवणीय कीर्ति होने के कारण श्रवण—इन नक्षत्रों से वह मूर्ति संयुक्त है।

ऐसी नक्षत्रमालामयी भगवान् शिव की यह रूपमूर्ति आप सभी को कल्याण प्रदान करे। ॥२॥

(यहाँ भक्त कवि ने मुख्यतया भगवान के उन दिव्य गुणों का वर्णन किया है, जिनके आधार पर ज्योतिषशास्त्र में वर्णित अनेक नक्षत्रों को भी भगवान के स्वरूप से जोड़ा गया है। यह स्तुति केवल ज्योतिषीय नहीं, बल्कि तत्वदर्शी उपासना है।)

एक बार भगवती पार्वती भगवान् शंकर के द्वारा गंगा को सिर पर धारण किए जाने से क्षुब्ध होकर उनसे गंगाजी के विषय में पूछने लगीं—

पार्वती: "हे शिव! यह कौन है?"

शिव: "हे सुन्दर शरीरवाली! किसके विषय में पूछ रही हो?"

पार्वती: "जो आपके मस्तक पर स्थित है।"

शिव: "क्या जटा के विषय में पूछ रही हो?"

पार्वती: "नहीं, यह सफेद-सी वस्तु कौन-सी दीख रही है?"

शिव: "हंस?"

पार्वती: "क्या हंस जटा में रहता है?"

शिव: "नहीं, यह चन्द्रमा है।"

पार्वती: "तो क्या चन्द्रमा जल में रहता है?"

शिव: "मुग्धे! यह विभूति है।"

पार्वती: "फिर इसमें जल कहाँ से आ गया?"

शिव: "यह जल नहीं है, प्रत्युत विभूति ही तरंगायमान हो रही है।"

इस प्रकार जो भगवान् शंकर त्रिपथगा गंगा को छिपा रहे हैं, वे आप सबकी रक्षा करें। ॥३॥

॥ इस प्रकार गौरीश्वर स्तुति सम्पूर्ण हुई ॥

नन्दिस्तव

जो भगवान् नीलकण्ठ अपने गले के आभूषण रूप घंटे की "घन-घन" ध्वनि से आकाश और पृथ्वी को भी क्षुब्ध कर देते हैं, जो आरोहण योग्य, परिपुष्ट, सुंदर, भावयुक्त और स्निग्ध पृष्ठभाग वाले हैं; जो साक्षात शरीरधारी धर्म के प्रतिरूप हैं, जिनकी श्वेत वर्ण ककुद् (कंधा/ऊँचा हिस्सा) की कान्ति से कैलास शिखर भी निर्मल हो जाता है—वे भगवान् नन्दिकेश्वर आप सभी के भीतर जमा अज्ञान-अंधकार रूपी तृणपुंज को छिन्न-भिन्न कर दें।

॥ इस प्रकार नन्दिस्तव सम्पूर्ण हुआ ॥

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