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श्री नर्मदा चालीसा (Shri Narmada Chalisa)

नर्मदा चालीसा की रचना और महत्त्व


हिन्दू धर्म में नदियों को मां के समान पूजा जाता है। ऐसी ही एक नदी है नर्मदा नदी, जो मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों से होकर बहती है। नर्मदा माता के रूप में पवित्र दर्जा स्वयं भगवान शिव ने इन्हें दिया है। पापों से मुक्ति और मन की शांति के लिए नर्मदा चालीसा का पाठ करना चाहिए। नर्मदा चालीसा मां नर्मदा की स्तुति है। जिसमें मां नर्मदा की महिमा का वर्णन, साथ ही उनके गुणों और परोपकार की प्रशंसा की गई है। इस दिव्य चालीसा के पाठ से, भक्त को मां नर्मदा के आशीर्वाद से शांति, बुद्धि और विवेक मिलती है। । जो व्यक्ति नर्मदा चालीसा का जाप करता है वह सुख का भागीदार बनता है, उसे किसी भी प्रकार का शारीरिक कष्ट नहीं होता। विशेषकर नर्मदा जयंती के अवसर पर नर्मदा चालीसा का पाठ जरूर करना चाहिए। इसके साथ ही इसका पाठ करने के कई लाभ हैं, जैसे... 


१) नर्मदा चालीसा का पाठ करने से व्यक्ति आर्थिक रूप से मजबूत होता है और उन्हें कभी भी वित्तीय परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता।

२) जीवन में सुख और शांति की अनुभूति होती है।

३) बौद्धिक ज्ञान बढ़ता है।

४) समाज में मान-सम्मान बढ़ता है।



॥ दोहा ॥


देवि पूजित, नर्मदा, महिमा बड़ी अपार।

चालीसा वर्णन करत, कवि अरु भक्त उदार॥

इनकी सेवा से सदा, मिटते पाप महान।

तट पर कर जप दान नर, पाते हैं नित ज्ञान ॥


॥ चौपाई ॥


जय-जय-जय नर्मदा भवानी, तुम्हरी महिमा सब जग जानी।

अमरकण्ठ से निकली माता, सर्व सिद्धि नव निधि की दाता।

कन्या रूप सकल गुण खानी, जब प्रकटीं नर्मदा भवानी।

सप्तमी सुर्य मकर रविवारा, अश्वनि माघ मास अवतारा।


वाहन मकर आपको साजैं, कमल पुष्प पर आप विराजैं।

ब्रह्मा हरि हर तुमको ध्यावैं, तब ही मनवांछित फल पावैं।

दर्शन करत पाप कटि जाते, कोटि भक्त गण नित्य नहाते।

जो नर तुमको नित ही ध्यावै, वह नर रुद्र लोक को जावैं।


मगरमच्छा तुम में सुख पावैं, अंतिम समय परमपद पावैं।

मस्तक मुकुट सदा ही साजैं, पांव पैंजनी नित ही राजैं।

कल-कल ध्वनि करती हो माता, पाप ताप हरती हो माता।

पूरब से पश्चिम की ओरा, बहतीं माता नाचत मोरा।


शौनक ऋषि तुम्हरौ गुण गावैं, सूत आदि तुम्हरौं यश गावैं।

शिव गणेश भी तेरे गुण गवैं, सकल देव गण तुमको ध्यावैं।

कोटि तीर्थ नर्मदा किनारे, ये सब कहलाते दु:ख हारे।

मनोकमना पूरण करती, सर्व दु:ख माँ नित ही हरतीं।


कनखल में गंगा की महिमा, कुरुक्षेत्र में सरस्वती महिमा।

पर नर्मदा ग्राम जंगल में, नित रहती माता मंगल में।

एक बार कर के स्नाना, तरत पिढ़ी है नर नारा। 

मेकल कन्या तुम ही रेवा, तुम्हरी भजन करें नित देवा।


जटा शंकरी नाम तुम्हारा, तुमने कोटि जनों को है तारा।

समोद्भवा नर्मदा तुम हो, पाप मोचनी रेवा तुम हो।

तुम्हरी महिमा कहि नहीं जाई, करत न बनती मातु बड़ाई।

जल प्रताप तुममें अति माता, जो रमणीय तथा सुख दाता।


चाल सर्पिणी सम है तुम्हारी, महिमा अति अपार है तुम्हारी।

तुम में पड़ी अस्थि भी भारी, छुवत पाषाण होत वर वारि।

यमुना मे जो मनुज नहाता, सात दिनों में वह फल पाता।

सरस्वती तीन दीनों में देती, गंगा तुरत बाद हीं देती।


पर रेवा का दर्शन करके मानव फल पाता मन भर के।

तुम्हरी महिमा है अति भारी, जिसको गाते हैं नर-नारी।

जो नर तुम में नित्य नहाता, रुद्र लोक मे पूजा जाता।

जड़ी बूटियां तट पर राजें, मोहक दृश्य सदा हीं साजें|


वायु सुगंधित चलती तीरा, जो हरती नर तन की पीरा।

घाट-घाट की महिमा भारी, कवि भी गा नहिं सकते सारी।

नहिं जानूँ मैं तुम्हरी पूजा, और सहारा नहीं मम दूजा।

हो प्रसन्न ऊपर मम माता, तुम ही मातु मोक्ष की दाता।


जो मानव यह नित है पढ़ता, उसका मान सदा ही बढ़ता।

जो शत बार इसे है गाता, वह विद्या धन दौलत पाता।

अगणित बार पढ़ै जो कोई, पूरण मनोकामना होई।

सबके उर में बसत नर्मदा, यहां वहां सर्वत्र नर्मदा ।


॥ दोहा ॥


भक्ति भाव उर आनि के, जो करता है जाप। 

माता जी की कृपा से, दूर होत संताप॥

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