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शाही स्नान की शुरुआत कैसे हुई?

शाही स्नान की शुरुआत कैसे हुई?

14 जनवरी को होगा पहला शाही स्नान, जानिए इसके शुरुआत से जुड़ी कहानी 


कुंभ मेले का प्रमुख आकर्षण शाही स्नान होता है। जिसमें सबसे पहले अखाड़ों के साधु-संत, विशेष रूप से नागा साधु, पवित्र नदियों में स्नान करते हैं। सदियों से चली आ रही यह परंपरा एक विशेष अनुष्ठान है, जिसका साधुओं के साथ- साथ पूरे हिंदू समाज के लिए भी विशेष महत्व है। प्रयागराज में इस बार 12 जनवरी से 26 फरवरी के बीच भव्य कुंभ मेला होने वाला है। इसमें शाही स्नान मकर संक्रांति के दिन 14 जनवरी 2025 को होगा। जिसके लिए करोड़ो लोग पहुंचेंगे। लेकिन क्या आप जानते हैं कि शाही स्नान की शुरुआत कैसे हुई? चलिए आपको बताते है


राजशाही तरीके से साधु करते हैं स्नान


शाही स्नान" नाम इस परंपरा को शाही वैभव और दिव्यता से जोड़ता है। पुराने समय में राजा-महाराजाओं के साथ-साथ साधु-संतों का एक भव्य जुलूस स्नान के लिए जाता था। यह जुलूस एक शाही परेड जैसा होता था, जिसके कारण इसे "शाही स्नान" कहा जाने लगा। इस आयोजन में नागा साधु, महामंडलेश्वर, और प्रमुख संत अपने शिष्यों के साथ सबसे पहले स्नान करते हैं।


शाही स्नान की शुरुआत कैसे हुई?


कुछ मान्यताओं के अनुसार, यह परंपरा वेदों के समय से चली आ रही है, जबकि कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इसकी शुरुआत मध्यकाल में हुई थी।


चार स्थानों पर गिरा था अमृत 


हिन्दू धर्म ग्रंथों के मुताबिक पौराणिक काल में देवता और राक्षसों के बीच समुद्र मंथन के दौरान अमृत कलश निकला। इस अमृत कलश के लिए देवता और राक्षसों के बीच युद्ध हुआ। इस दौरान अमृत की कुछ बूंदें प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में गिरी।अमृत के गिरने के कारण इन स्थानों को पवित्र माना गया। इसी वजह से  कुंभ मेला इन चार जगहों पर आयोजित होता है और यहां स्नान करना पवित्र माना जाता है।


हिंदू संस्कृति को बचाने के लिए शुरू हुए स्नान 


कुछ इतिहासकारों का मानना है कि शाही स्नान की शुरुआत मध्यकालीन भारत यानी 14 से 16वीं शताब्दी के बीच हुई थी। दरअसल मध्यकाल के दौरान भारत में कई मुस्लिम शासकों ने आक्रमण किया। जिससे हिंदू धर्म और संस्कृति पर खतरा बन रहा था। इस दौरान साधु-संतों ने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए संघर्ष किया। नागा साधु इस संघर्ष में सबसे आगे थे। इसी साहस और बलिदान को सम्मान देने के लिए शाही स्नान की परंपरा की शुरुआत की गई। धीरे धीरे यह परंपरा व्यापक होती गई।


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