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लाहौल के उदयपुर में स्थित मृकुला देवी मंदिर का इतिहास द्वापर युग से जुड़ा है। समुद्रतल से 2623 मीटर की ऊंचाई पर मृकुला देवी मंदिर के दर्शन करने के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। मान्यता है कि मृकुला देवी के इस मंदिर का निर्माण पांडवों के वनवास के समय हुआ था। महाबली भीम द्वारा लाए गए एक वृक्ष की लकड़ी से देवताओं के शिल्पकार भगवान विश्वकर्मा ने महज एक दिन में इस मंदिर का निर्माण किया था। मृकुला देवी को माता काली के रूप में पूजा जाता है। मान्यता है कि महिषासुर का वध करने के बाद उसके रक्त को माता ने एक खप्पर में रख दिया था। वह खप्पर आज भी यहां माता काली की मूर्ति के पीछे रखा हुआ है। हालांकि इसे देखना भक्तों को मना है। इस मंदिर में मां काली की महिषासुर मर्दिनी के आठ भुजाओं वाले रूप की पूजा की जाती है।
मंदिर के पीछे महाभारत काल की एक कहानी प्रसिद्ध है। भीम एक विशालकाय पेड़ शिल्पकार भगवान विश्वकर्मा के पास ले गए और कहा कि वह इस पेड़ से एक मंदिर बनाएं। तब भगवान विश्वकर्मा ने एक ही दिन में ये मंदिर बना दिया। मंदिर में कई ऐसे चित्र हैं दो बेहद अद्भुत और हैरान करने वाले हैं। मंदिर में मृत्यु शैया पर लेटे भीष्म पितामह, समुद्र मंथन, सीता माता का हरण, अशोक वाटिका, गंगा-यमुना, आठ ग्रह, भगवान विष्णु अवतार, भगवान शिव का तीसरा नेत्र खुलने जैसी कई तस्वीरें मौजूद हैं। साथ ही मंदिर के कपाट के पास द्वारपाल के रूप में बजरंगबली और भैरव खड़े हैं। मंदिर की दीवारें पहाड़ी शैली में बनाया गया है।
मंदिर में महिषासुर का वध करने के बाद मां काली यहां आईं थी और साथ में खून से सना खप्पर भी था। देवी का ये खप्पर यहां आज भी मौजूद है और इस मंदिर में देवी की मुख्य मूर्ति के ठीक पीछे रखा गया है, लेकिन इसे भक्त नहीं देख सकते और यदि कोई जानबूझ कर इसे देखने का प्रयास करता है तो वह अंधा हो जाता है।
मंदिर में प्रवेश से पहले श्रद्धालुओं को यहां का एक राज भी बताया जाता है कि अंदर जाकर कोई गलती न करें। यहां पूजा-अर्चना और दर्शन के बाद भूलकर भी 'चलो यहां से चलते हैं' नहीं बोलना चाहिए। माना जाता है कि ऐसा बोलने पर आपके परिवार पर विपदा आ सकती है। ऐसा कहने पर इस मंदिर के द्वार पर खड़े दोनों द्वारपाल भी साल चल पड़ते हैं।
इतिहास के अलावा मृकुला देवी मंदिर को अपनी अद्भुत और उत्कृष्ट नक्काशी के लिए जाना जाता है। यहां कारण है कि कला प्रेमियों के बीच भी ये धार्मिक स्थल बेहद महत्व रखता है। बाहर से देखने पर ये धार्मिक स्थल साधारण कुटीर जैसा लगता है, लेकिन भीतर जाने पर आपको कला की एक अलग ही दुनिया देखने को मिलती है। मंदिर की काष्ठ कला विभिन्न शताब्दियों में की गई है। मंदिर के गर्भगृह में स्थापित माता की मूर्ति बाहर से नजर आ जाती है। प्रतिमा कक्ष का दरवाजा छोटा है, इसलिए माता के चरणों तक पहुंचने के लिए झुक कर जाना होता है। दो-तीन लोग ही एक समय में यहां फूल चढ़ा सकते हैं।
स्पीति घाटी में साल में एक बार फागली का पारंपरिक महोत्सव मनाया जाता है। उत्सव की पूर्व संध्या पर मां मृकुला देवी मंदिर के पुजारी खप्पर की पूजा अर्चना की अदायगी अकेले ही करते हैं। खप्पर को बाहर निकाला जाता है, लेकिन कोई देखता नहीं है। जनश्रुति के अनुसार, साल 1950 में इस खप्पर को देखने वाले 4 लोगों की आंखों की रोशनी हमेशा के लिए बुझ गई थी। 16वीं शताब्दी से पहले इस गांव का नाम मुरगल था। परंतु जब चंबा के राजा उदय सिंह लाहौल आए तो राजा ने देवी की मूर्ति की स्थापना की। इसके बाद गांव का नाम उदयपुर रखा गया। ये गांव चंद्रभागा नदी के किनारे बसा है। हिंदू देवी मृकुला या महाकाली के महिषासुर मर्दिनी माता के नाम से पूजा करते हैं। जबकि बौद्ध धर्म के लोग माता वृकुला नाम से वर्णित वज्रराही के रुप में पूजते हैं।
मंदिर के प्रांगण में 1 क्विंटल करीब ढाई मन वजन का एक पत्थर है जिसे उठाना तो दूर हिलाने में भी पसीने छूट जाते हैं। यह पत्थर भीम के लिए रखा गया था। भीम अपने चारों भाइयों का सारा भोजन चट कर जाते थे। ऐसे में उन्हें इत पत्थर के वजन के बराबर एक समय का भोजन दिया जाता था। ताकि बाकी पांडव भूखे न रहे।
हवाई मार्ग - यहां का नजदीकी एयरपोर्ट भानुपल्ली है जो कि मंडी से लगभग 25 किमी दूर है। आप यहां से टैक्सी या स्थानीय परिवहन के द्वारा मंदिर तक पहुंच सकते हैं।
रेल मार्ग - पालमपुर रेलवे स्टेशन से मृकुला देवी मंदिर की दूरी लगभग 80 किमी है। यहां से आप टैक्सी या बस से मंदिर तक जा सकते हैं।
सड़क मार्ग - मंडी शहर से मृकुला देवी मंदिर की दूरी लगभग 45 किमी है। आप निजी वाहन, टैक्सी या बस के द्वारा मंदिर पहुंच सकते हैं।
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