जिस काँधे कावड़ लाऊँ,
मैं आपके लिए,
वो काँधा काम आ जाए,
माँ और बाप के लिए,
वो काँधा काम आ जाए,
माँ और बाप के लिए ॥
जब काँधे पे मैं कावड़ उठाऊँ,
उससे मैं जितना पुण्य कमाऊँ,
उसको रखू मैं बचाके आशीर्वाद के लिए,
वो काँधा काम आ जाए,
माँ और बाप के लिए,
वो काँधा काम आ जाए,
माँ और बाप के लिए ॥
इन काँधों में ऐसी तू शक्ति भरदे,
आखरी समय में उनकी सेवा करदे,
काम मुश्किल ये नहीं है भोलेनाथ के लिए,
वो काँधा काम आ जाए,
माँ और बाप के लिए,
वो काँधा काम आ जाए,
माँ और बाप के लिए ॥
कावड़ हो या अर्थी भोले आए तेरे पास हो,
‘बनवारी’ तेरे ऊपर इतना तो विश्वास हो,
तेरा कावड़िया ना तरसे सर पे हाथ के लिए,
वो काँधा काम आ जाए,
माँ और बाप के लिए,
वो काँधा काम आ जाए,
माँ और बाप के लिए ॥
जिस काँधे कावड़ लाऊँ,
मैं आपके लिए,
वो काँधा काम आ जाए,
माँ और बाप के लिए,
वो काँधा काम आ जाए,
माँ और बाप के लिए ॥
होली फेस्टिवल होलिका दहन के एक दिन बाद मनाया जाता है। हिंदू धर्म में इसका विशेष अर्थ है। बता दें कि होलिका दहन बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है, और कई लोग होलिका दहन को छोटी होली के नाम से भी जानते है।
धार्मिक मान्यता के मुताबिक, होलिका दहन करने से घर में सकारात्मक ऊर्जा आती है और सुख-समृद्धि बढ़ती है। होलिका दहन के विधिवत आराधना करने से नकारात्मकता भी घर से बाहर चल जाता है। इसके साथ ही माता लक्ष्मी का भी आशीर्वाद बना रहता है।
होली का नाम सुनते ही हमारे मन में रंगों की खुशबू, उत्साह और व्यंजनों की खुशबू बस जाती है। यह भारत के सबसे पुराने और सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है, लेकिन इसकी उत्पत्ति के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं है। हालांकि, होली से जुड़ी कई किंवदंतियां हैं।
होली का त्योहार सिर्फ द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण से जुड़ा नहीं है, बल्कि इसका संबंध त्रेतायुग और भगवान श्रीराम से भी गहरा है। कहा जाता है कि त्रेतायुग में भी होली मनाई जाती थी, लेकिन तब इसका रूप आज से थोड़ा अलग था। ये सिर्फ रंगों का खेल नहीं था, बल्कि सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व से जुड़ा हुआ एक अनोखा त्योहार था।