सनातन परंपरा में वर्ष भर आने वाली चौबीस एकादशियों में से निर्जला एकादशी को सबसे अधिक फलदायी माना गया है। ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष में आने वाली यह एकादशी तप, संयम और श्रीहरि के प्रति समर्पण का महान प्रतीक है। 2026 में यह व्रत 25 जून को रखा जाएगा और पारण 26 जून की प्रातः 05 बजकर 25 मिनट से 08 बजकर 13 मिनट के बीच किया जाएगा। एकादशी तिथि 24 जून को शाम 06 बजकर 12 मिनट से प्रारम्भ होकर 25 जून को रात 08 बजकर 09 मिनट तक रहेगी। कठोर अनुशासन वाले इस व्रत में भक्त भोजन ही नहीं बल्कि जल तक का सेवन नहीं करते। मान्यता है कि निर्जला एकादशी का व्रत रखने से बारह और चौबीसों एकादशियों का संयुक्त फल प्राप्त होता है।
निर्जला एकादशी 2026 का व्रत गुरुवार, 25 जून को किया जाएगा। पारण 26 जून को प्रातः 05 बजकर 25 मिनट से 08 बजकर 13 मिनट के बीच करना श्रेष्ठ रहेगा। उसी दिन द्वादशी तिथि रात 10 बजकर 22 मिनट पर समाप्त होगी। एकादशी तिथि 24 जून की शाम 06 बजकर 12 मिनट पर आरम्भ होकर 25 जून की रात 08 बजकर 09 मिनट तक चलेगी। शास्त्रों के अनुसार पारण हमेशा द्वादशी के भीतर ही करना चाहिए। यदि द्वादशी सूर्योदय से पहले समाप्त हो जाए तो सूर्योदय के बाद पारण किया जाता है। हरि वासर की अवधि में पारण वर्जित माना गया है। व्रत तोड़ने का सर्वश्रेष्ठ समय प्रातःकाल बताया गया है।
निर्जला एकादशी को वर्ष की सबसे कठिन एकादशी कहा गया है क्योंकि इसमें भक्त पूरे दिन बिना भोजन और जल के रहते हैं। केवल स्नान या आचमन के दौरान मुख में बहुत अल्प जल जाने की अनुमति है, किंतु छह माशे से अधिक जल आचमन में ग्रहण करना वर्जित बताया गया है। मान्यता है कि इस व्रत के पालन से सभी तीर्थों के स्नान, दान और तप के समान फल मिलता है। जो व्यक्ति सभी एकादशियों का व्रत नहीं कर पाते, वे केवल निर्जला एकादशी का व्रत कर वर्ष की सभी एकादशियों के बराबर पुण्य प्राप्त कर सकते हैं। इस दिन भगवान विष्णु की पूजा, जप, गौदान और ब्राह्मण भोजन का विशेष महत्व है।
यह एकादशी पाण्डव या भीमसेनी एकादशी के नाम से भी प्रसिद्ध है। कथा के अनुसार भीमसेन अपनी प्रबल भूख के कारण अन्य भाईयों की तरह मास की दोनों एकादशियाँ नहीं कर पाते थे। इससे वे स्वयं को पाप का भागी समझकर अत्यंत चिंतित थे। समाधान खोजते हुए वे महर्षि व्यास के पास पहुंचे। तब व्यासजी ने उन्हें ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की निर्जला एकादशी का व्रत करने का उपदेश दिया और बताया कि यह व्रत चौबीसों एकादशियों के बराबर फल देने वाला है। भीमसेन ने इसे करने का प्रण लिया। तब से यह व्रत भीमसेनी एकादशी के रूप में प्रचलित हुआ। पुराणों में वर्णन है कि निर्जला व्रत रखने वालों को मृत्यु के समय यमदूत नहीं दिखाई देते और विष्णुदूत उन्हें पुष्पक विमान में बिठाकर स्वर्ग ले जाते हैं।
निर्जला एकादशी के दिन प्रातः स्नान कर भगवान विष्णु का पूजन किया जाता है। 'ओम नमो भगवते वासुदेवाय' मंत्र का जप इस दिन अत्यंत फलदायी माना गया है। व्रत का संकल्प लेकर दिनभर तप, जप, पाठ और सेवा में समय बिताना श्रेष्ठ बताया गया है। द्वादशी तिथि पर प्रातःकाल ब्राह्मणों को भोजन कराना, दक्षिणा देना और गौदान करना व्रत की सार्थकता को पूर्ण करता है। जल से भरा हुआ घड़ा वस्त्र सहित दान करने की भी परंपरा है। जो व्यक्ति इस दिन कथा का श्रवण और पठन करते हैं, वे भी पुण्य के अधिकारी होते हैं। यह एकादशी भक्त को पापों से मुक्त कर विष्णुलोक तक ले जाने वाली मानी गई है।