हिंदू धर्म में एकादशी तिथि को अत्यंत शुभ और पुण्यदायी माना गया है। सालभर में 24 एकादशियां पड़ती हैं और हर एकादशी का अपना विशिष्ट महत्व होता है। आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को पापांकुशा एकादशी कहा जाता है। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, यह एकादशी ‘पापों पर अंकुश’ लगाने वाली मानी गई है। शास्त्रों में इसका उल्लेख भगवान श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर के संवाद में मिलता है, जहां श्रीकृष्ण इस व्रत के महत्व और इसके पालन से मिलने वाले दिव्य फलों का वर्णन करते हैं। आइए जानते हैं कि पापांकुशा एकादशी क्यों मनाई जाती है और इसका धार्मिक महत्व क्या है।
‘पापांकुशा’ शब्द दो भागों से बना है — ‘पाप’ यानी दोष या अधर्म और ‘अंकुशा’ यानी रोकने वाला। इस प्रकार यह एकादशी व्यक्ति के जीवन में हुए पापों को रोकने, समाप्त करने और आत्मा को शुद्ध करने का मार्ग प्रदान करती है। मान्यता है कि इस दिन भगवान विष्णु के पद्मनाभ स्वरूप की पूजा और व्रत करने से व्यक्ति के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और मृत्यु के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है।
जो भक्त इस दिन सच्चे मन से भगवान विष्णु का नाम स्मरण करते हैं, उन्हें यमलोक की यातनाओं से मुक्ति मिलती है। इस व्रत के प्रभाव से तीनों पीढ़ियों मातृपक्ष, पितृपक्ष और स्त्रीपक्ष का उद्धार होता है। कहा गया है कि यह व्रत मनुष्य को न केवल मनवांछित फल प्रदान करता है, बल्कि उसे विष्णुलोक तक पहुंचाने की क्षमता रखता है।
पापांकुशा एकादशी के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान करें और भगवान विष्णु के पदनाभ स्वरूप की पूजा करें। पीले वस्त्र, फूल, तुलसी दल और पंचामृत से अभिषेक करें। व्रत रखने वाले व्यक्ति को दिनभर अन्न त्याग कर केवल फलाहार या निर्जल व्रत रखना चाहिए। शाम के समय विष्णु सहस्रनाम या ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र का जाप करें। व्रत पूर्ण होने पर द्वादशी तिथि को विधिवत पारण करें और ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान-दक्षिणा दें।
पौराणिक कथा के अनुसार, जब युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से इस एकादशी का महत्व पूछा, तब श्रीकृष्ण ने कहा - “हे राजन! यह एकादशी मनुष्य के पापों का नाश कर उसे विष्णुलोक तक ले जाती है। जो भक्त इस व्रत को करते हैं, वे अपने साथ दस पीढ़ियों का उद्धार करते हैं।” उन्होंने यह भी बताया कि सहस्रों यज्ञ करने का जो फल है, वह भी एकादशी व्रत के सोलहवें भाग के बराबर नहीं है।