होलिका दहन और चैत्र नवरात्रि के बीच पड़ने वाली पापमोचनी एकादशी वर्ष की अंतिम एकादशी मानी जाती है। यह एक ऐसा व्रत है जिसके बारे में कहा गया है कि इसके प्रभाव से असम्भव प्रतीत होने वाले पाप भी नष्ट हो जाते हैं। उत्तर भारत के पूर्णिमान्त पञ्चांग और दक्षिण भारत के अमान्त पञ्चांग में भले माह के नाम अलग हों, पर पापमोचनी एकादशी दोनों ही परम्पराओं में एक ही दिन मनाई जाती है। 2026 में यह शुभ तिथि 15 मार्च को है यानी रविवार के दिन इस व्रत का पालन किया जाएगा। श्रद्धालुओं के लिए पारण, हरि वासर और कथा का सही ज्ञान अत्यंत आवश्यक है। यह एकादशी मेधावी ऋषि और अप्सरा मञ्जुघोषा की कथा से विशेष रूप से जुड़ी है, जिसमें भगवान की कृपा से पापों से मुक्ति का गूढ़ संदेश मिलता है।
2026 में पापमोचनी एकादशी रविवार 15 मार्च को है। एकादशी तिथि 14 मार्च की सुबह 08 बजकर 10 मिनट पर प्रारम्भ होकर 15 मार्च की सुबह 09 बजकर 16 मिनट पर समाप्त होगी। व्रत करने वाले श्रद्धालुओं के लिये पारण 16 मार्च को सूर्योदय के बाद 06 बजकर 30 मिनट से 08 बजकर 54 मिनट तक सर्वोत्तम है। उसी दिन द्वादशी तिथि भी 09 बजकर 40 मिनट पर समाप्त हो जाएगी, इसलिए पारण इसी अवधि में करना आवश्यक है। हरि वासर की अवधि में पारण वर्जित माना गया है क्योंकि वह द्वादशी का प्रथम चरण होता है। व्रतधारियों को चाहिए कि वे हरि वासर समाप्त होने के बाद ही अन्न ग्रहण करें। यदि किसी कारणवश प्रातःकाल पारण न हो सके तो मध्याह्न के बाद पारण किया जा सकता है।
पापमोचनी एकादशी का अर्थ ही है पापों को मोचन करने वाली एकादशी। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि यदि मनुष्य अज्ञान, भ्रम या सांसारिक मोह में पड़कर भारी पाप कर बैठा हो, तब भी इस एकादशी का व्रत उसे पाप बन्धन से मुक्त कर सकता है। यह एकादशी भगवान श्रीहरि को समर्पित है। व्रत रखने से ब्रह्म हत्या, स्वर्ण अपहरण, मद्यपान, अगम्या गमन जैसे महापापों का भी शमन माना गया है। इसके फलस्वरूप मनुष्य को स्वर्गलोक की प्राप्ति और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। यह व्रत सम्वत वर्ष की अंतिम एकादशी होने के कारण भी विशेष फलदायी माना जाता है, क्योंकि यह पुराने वर्ष के पापों को धोकर नये वर्ष की शुभ शुरुआत का मार्ग खोलता है।
इस एकादशी से जुड़ी मुख्य कथा मेधावी ऋषि और अप्सरा मञ्जुघोषा की है। मञ्जुघोषा को मेधावी को मोहित करने के लिए भेजा गया और वह अपने सौन्दर्य से ऋषि को विचलित करने में सफल रही। कामवश मुनि अपने तप का ज्ञान भूल गये और सत्तावन वर्ष उनके भ्रमित जीवन में बीत गए। सत्य का बोध होते ही ऋषि क्रोध में अप्सरा को पिशाचिनी होने का श्राप दे बैठे। पश्चाताप से भरी मञ्जुघोषा ने श्राप मुक्ति का उपाय पूछा तो ऋषि ने पापमोचनी एकादशी का व्रत बतलाया। व्रत करने पर वह पुनः अपने स्वर्गीय रूप में लौट गयी। मेधावी भी अपने पापों से मुक्त हो गये। कथा सिखाती है कि मोह और भोग मनुष्य को मार्गभ्रष्ट कर सकते हैं, परन्तु भगवान की शरण में जाकर वह पुनः पवित्र मार्ग पर लौट सकता है।
इस व्रत में प्रातःकाल स्नान के बाद भगवान विष्णु का ध्यान कर व्रत का संकल्प लिया जाता है। पूरे दिन जप, ध्यान, कथा श्रवण और सत्कर्मों में लगे रहना श्रेष्ठ माना गया है। कोई भी प्रकार की हिंसा, कटु वचन, तामसिक भोजन, असत्संग और काम क्रोध जैसे दोष इस दिन वर्जित हैं। रात्रि में भजन और जागरण का भी विशेष महत्व होता है। द्वादशी के दिन सूर्योदय के बाद हरि वासर समाप्त होने पर पारण किया जाता है। यदि कोई बिना अनाज के फलाहार से व्रत कर सकता है तो उसे अधिक पुण्य प्राप्त होता है। भक्त भावना और संयम के साथ किया गया यह व्रत मन को शुद्धि और जीवन में नई दिशा देने वाला माना गया है।