हिंदू पंचांग में माघ मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी को षटतिला एकादशी कहा जाता है। यह व्रत भगवान विष्णु की विशेष कृपा प्राप्त करने का महत्वपूर्ण अवसर माना गया है। शास्त्रों में इस एकादशी का वर्णन पापों के नाश और पुण्य वृद्धि के लिए किया गया है। षटतिला एकादशी का नाम तिल के छह प्रकार के धार्मिक उपयोगों के कारण पड़ा है। इस दिन व्रत, दान, जप और हवन करने से जन्म जन्मांतर के दोष समाप्त होते हैं। वर्ष 2026 में यह एकादशी जनवरी माह में पड़ रही है, जिसका पालन श्रद्धा और विधि से करने पर अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।
षटतिला एकादशी बुधवार, 14 जनवरी 2026 को मनाई जाएगी।
एकादशी तिथि प्रारम्भ
13 जनवरी 2026 को 03:17 पी एम
एकादशी तिथि समाप्त
14 जनवरी 2026 को 05:52 पी एम
पारण तिथि
15 जनवरी 2026
पारण समय
सुबह 07:15 ए एम से 09:21 ए एम
द्वादशी तिथि समाप्त
15 जनवरी 2026 को 08:16 पी एम
धर्म शास्त्रों के अनुसार एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के बाद और द्वादशी समाप्त होने से पहले करना अनिवार्य माना गया है। हरि वासर के दौरान पारण निषिद्ध है, इसलिए दिए गए शुभ समय में ही व्रत तोड़ना चाहिए।
एकादशी व्रत का समापन पारण से ही पूर्ण माना जाता है। पारण द्वादशी तिथि में और हरि वासर समाप्त होने के बाद किया जाता है। यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो जाए, तो पारण सूर्योदय के बाद ही किया जाता है। शास्त्रों में बताया गया है कि द्वादशी के भीतर पारण न करना पाप के समान है। व्रत तोड़ने का सर्वोत्तम समय प्रातःकाल माना गया है। यदि किसी कारणवश प्रातः पारण न हो सके, तो मध्याह्न के बाद पारण किया जा सकता है, लेकिन मध्याह्न के समय पारण से बचना चाहिए।
कभी कभी एकादशी तिथि दो दिनों तक रहती है। ऐसी स्थिति में स्मार्त परंपरा मानने वाले श्रद्धालुओं को पहले दिन व्रत करना चाहिए। दूसरे दिन की एकादशी को दूजी एकादशी कहा जाता है। सन्यासियों, विधवाओं और मोक्ष की कामना रखने वाले भक्तों के लिए दूजी एकादशी का व्रत श्रेष्ठ माना गया है। जब एकादशी दो दिन होती है, तब दूजी एकादशी और वैष्णव एकादशी एक ही दिन पड़ती है। विशेष भक्ति रखने वाले श्रद्धालुओं को दोनों दिन एकादशी व्रत करने की भी सलाह दी गई है।
पुराणों के अनुसार एक बार दालभ्य ऋषि ने पुलस्त्य ऋषि से मनुष्यों को पापों से मुक्त करने का उपाय पूछा। तब पुलस्त्य ऋषि ने माघ मास की षटतिला एकादशी का महत्व बताया। उन्होंने कहा कि इस दिन उपवास, जागरण, तिल से हवन और दान करने से बड़े से बड़े पाप भी नष्ट हो जाते हैं। तिल का छह प्रकार से उपयोग करना ही षटतिला कहलाता है।
कथा में नारद मुनि और भगवान श्रीहरि का संवाद भी आता है, जिसमें एक ब्राह्मणी के पूर्वजन्म के दानाभाव और षटतिला एकादशी व्रत के प्रभाव का वर्णन मिलता है। इस व्रत के पालन से ब्राह्मणी का जीवन धन्य धान्य से भर गया और उसे भगवान विष्णु की विशेष कृपा प्राप्त हुई।
इन छह प्रकार से तिल का प्रयोग करने से अनेक जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं और आरोग्य, समृद्धि तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है।