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कथा लक्ष्मीनारायण के मिलन की

कथा लक्ष्मीनारायण के मिलन की

लक्ष्मीजी ने इस कारण भगवान विष्णु का पति रूप में किया वरण, जानिए पूरी कहानी 


समुद्र मंथन के दौरान जब असुर और देवताओं में स्पर्धा हो रही थी, तब माता लक्ष्मी प्रकट हुई थीं। माता लक्ष्मी के प्रताप से समस्त जगत बिजली की तरह जगमगा उठा था। माता का सौंदर्य, रूप-रंग और महिमा ने सबका मन मोह लिया था। मनुष्य, असुर, देवता हर कोई माता लक्ष्मी को प्राप्त करना चाहता था। सभी ने माता लक्ष्मी को आकर्षित करने हेतु उनका उचित आदर-सत्कार भी किया। सुपात्र पुरुष प्राप्ति हेतु माता लक्ष्मी हाथों में कमल पुष्पों की माला लिए अवतरित हुई थीं। लेकिन गन्धर्व, सिद्ध, यक्ष, असुर, देवताओं में खोजने के बाद भी उन्हें सुपात्र पुरुष नहीं मिला। क्योंकि, माता लक्ष्मी को सभी में कुछ ना कुछ ऐसी कमी दिखाई दी जिसे वह अनदेखा नहीं कर सकती थीं। 


भव्य रूप से किया गया माता का अभिनंदन


जब मंथन के दौरान श्री लक्ष्मी प्रकट हुईं  तब देवताओं, असुरों, मनुष्यों सभी ने यही कामना की कि श्री लक्ष्मी उन्हें ही मिल जाए। देवराज इंद्र ने उन्हें आसन दिया, नदियों ने अभिषेक के लिए स्वर्ण कलशों में पवित्र जल दिया, पृथ्वी ने अभिषेक के लिए औषधियां दीं, गायों ने पंचगव्य और ऋतुएं फूल व फल लेकर आईं। फिर ऋषियों ने विधिपूर्वक महालक्ष्मी का अभिषेक किया। गन्धर्वों ने मंगलगान गाएं और मृदंग, डमरू, ढोल, नगाड़े, नरसिंगे, शंख, वेणु और वीणाएं बजाने लगे। समुद्र ने देवी को पीले रेशमी वस्त्र समर्पित किए। जल के देवता वरुण ने वैजयंतीमाला, प्रजापति विश्वकर्मा ने आभूषण, सरस्वती ने मोतियों का हार, भगवान ब्रह्माजी ने कमल और नागों ने दो कुंडल देवी को समर्पित किए। 


श्री लक्ष्मी ने ऐसे चुना अपना वर  


लक्ष्मी देवी हाथों में कमल पुष्पों की माला लिए सुपात्र के वरण करने को आगे बढ़ीं। पर उन्हें कोई सुपात्र वर नहीं मिला। जो कोई तपस्वी हैं तो उसमें क्रोध पर विजय का गुण नहीं है। कोई ज्ञानी है पर अनासक्त नहीं है। कुछ काम को नहीं जीत सके हैं। किसी में धर्माचरण तो है परन्तु प्राणियों के प्रति प्रेम नहीं है, दया नहीं है। कुछ वीर हैं लेकिन मौत से भी डरते हैं। इसके बाद अंत में लक्ष्मी देवी ने समस्त सद्‌गुणों के स्वामी भगवान विष्णु का चयन किया। 


लक्ष्मी जी ने क्यों किया नारायण का वरण? 


लक्ष्मी ने विष्णु का वरण इसलिए किया क्योंकि, संसार की व्यवस्था को चलाने के लिए समृद्धि की आवश्यकता पड़ती है। और भगवान विष्णु में तप और ज्ञान तो हैं ही, वे क्रोध और काम को भी जीत चुके हैं। उनके पास धर्माचरण भी है और प्रेमाचरण भी। उनका ऐश्वर्य दूसरों पर आश्रित नहीं। इसलिए, माता श्री लक्ष्मी ने श्री हरि को ही चुना। भगवान विष्णु लक्ष्मी के शाश्वत पति हैं और माता लक्ष्मी भी अनंत काल से उनकी प्रिय पत्नी हैं। भगवान विष्णु शक्तिशाली हैं और उनकी शक्ति स्वयं माता लक्ष्मी हैं। इसलिए, श्री विष्णु की शक्ति और अर्धांगिनी के रूप में माता लक्ष्मी प्रतिष्ठित हुईं। 


सुपात्र के आठ गुण 


  1. कठोर श्रम और क्रोध पर क़ाबू करने वाला हो। 
  2. केवल ज्ञान से अर्जित धन लक्ष्मी नहीं बल्कि सच्ची लक्ष्मी तो धन के साथ अनासक्ति में है। 
  3. धन के लिए महत्वाकांक्षी हो पर वासनाओं को भी जीत चुका हो।
  4. ऐश्वर्य के लिए दूसरे के आश्रित ना हो अर्थात् जो पुर्वजों के धन पर निर्भर ना हो।
  5. धर्माचरण और प्रेम का आचरण करता हो।
  6. त्यागी के पास भी कभी लक्ष्मी नहीं टिकतीं। ऐसे में धर्म, अर्थ और काम तीनों का विजेता हो।
  7. स्वस्थ्य और दीर्घायु हो।
  8. लक्ष्मी की कद्र करना और उसे सद्कार्यों में लगाने की भावना हो।


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