सनातन धर्म में गणेश चतुर्थी का पर्व विशेष महत्व रखता है। इस दिन को विघ्नहर्ता, बुद्धि और ज्ञान के अधिष्ठाता भगवान गणेश के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को बप्पा का प्राकट्य हुआ था। खास बात यह है कि यह पर्व केवल एक दिन तक सीमित नहीं रहता, बल्कि पूरे 10 दिनों तक धूमधाम से मनाया जाता है और दसवें दिन अनंत चतुर्दशी के अवसर पर गणेश प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है। लेकिन आखिरकार गणेशोत्सव पूरे 10 दिनों तक ही क्यों मनाया जाता है, इसके पीछे कई धार्मिक और पौराणिक मान्यताएं प्रचलित हैं।
पौराणिक मान्यता के अनुसार, महर्षि वेदव्यास ने महाभारत ग्रंथ की रचना के लिए भगवान गणेश को लेखक बनने का आग्रह किया। गणेशजी ने शर्त रखी कि वे बिना रुके लगातार लेखन करेंगे और वेदव्यास को बिना ठहरे श्लोक सुनाने होंगे। इस पर दोनों का कार्य आरंभ हुआ। भगवान गणेश ने 10 दिनों तक लगातार अपने दांत को कलम बनाकर लेखन किया और इस प्रकार महाभारत की रचना पूर्ण हुई।
कहा जाता है कि लगातार बैठकर लेखन करने के कारण गणपति के शरीर पर धूल और मिट्टी जम गई थी। दसवें दिन उन्होंने सरस्वती नदी में स्नान कर अपने शरीर को स्वच्छ किया। तभी से परंपरा चली कि गणेश उत्सव का समापन 10वें दिन प्रतिमा विसर्जन के साथ किया जाए।
एक अन्य मान्यता के अनुसार, गणेशजी हर वर्ष 10 दिनों के लिए धरती पर आते हैं। भक्तजन उनका स्वागत करते हैं, उन्हें घरों और पंडालों में विराजमान करते हैं और पूरे श्रद्धा-भाव से सेवा करते हैं। यह 10 दिन बप्पा के साथ आत्मीय जुड़ाव के प्रतीक माने जाते हैं। अंतिम दिन यानी अनंत चतुर्दशी को बप्पा को विदा कर भक्त अगले वर्ष फिर से आने का वचन लेते हैं।
गणेश चतुर्थी का महत्व भग वान गणेश के जन्म से भी जुड़ा है। मान्यता है कि माता पार्वती ने अपने शरीर के मैल से एक बालक की रचना की और उसमें प्राण फूंक दिए। उसी बालक को कक्ष की रक्षा का कार्य सौंपा गया। जब भगवान शिव वहां आए तो गणेशजी ने उन्हें रोक दिया। इससे क्रोधित होकर शिवजी ने उनका सिर काट दिया। बाद में माता पार्वती के आग्रह पर शिवजी ने हाथी का सिर लगाकर गणेशजी को पुनर्जीवित किया। तभी से वे देवताओं में प्रथम पूज्य हो गए।
इन 10 दिनों को भक्ति, साधना और सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। इस दौरान भक्तजन घरों और सार्वजनिक स्थलों पर गणपति की प्रतिमा स्थापित कर विशेष पूजा-अर्चना करते हैं। परिवार और समाज एकजुट होकर भक्ति में लीन रहते हैं। यह समय न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है बल्कि सामाजिक समरसता और उत्साह का भी प्रतीक है।