भाद्रपद मास की शुक्ल चतुर्थी से शुरू होकर अनंत चतुर्दशी तक चलने वाला गणेशोत्सव पूरे देश में बड़े ही उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। महाराष्ट्र से लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में दस दिनों तक गणपति बप्पा का आगमन होता है। भक्त बड़े प्रेम से बप्पा को अपने घर और पंडालों में विराजित करते हैं, उनकी पूजा-अर्चना करते हैं और तरह-तरह के भोग लगाते हैं। लेकिन जब यह दस दिन पूरे हो जाते हैं, तो बप्पा को जल में विसर्जित कर दिया जाता है। आखिर ऐसा क्यों किया जाता है? इसके पीछे पौराणिक मान्यताएं और धार्मिक कारण जुड़े हुए हैं।
गणेश जी को बुद्धि, ज्ञान और विघ्नहर्ता का देवता माना गया है। किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत गणेश पूजा से ही होती है। मान्यता है कि जब भक्त उन्हें अपने घर बुलाते हैं और पूरे मन से पूजा करते हैं, तो गणपति प्रसन्न होकर उनके जीवन से विघ्नों को दूर करते हैं और सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं। दस दिनों तक घर में गणपति की उपस्थिति को सौभाग्य और पवित्रता का प्रतीक माना जाता है।
पौराणिक कथा के अनुसार, महर्षि वेदव्यास ने महाभारत ग्रंथ की रचना के लिए गणेश जी को लेखक चुना। शर्त यह थी कि वेदव्यास जी बिना रुके बोलेंगे और गणेश जी उतनी ही गति से उसे लिखेंगे। इस प्रकार दस दिनों तक लगातार वेदव्यास जी ने महाभारत सुनाई और गणेश जी उसे लिखते रहे। निरंतर लेखन से गणेश जी का शरीर गर्म हो गया। तब वेदव्यास जी ने उन्हें शीतलता प्रदान करने के लिए तालाब में स्नान करवाया। यही घटना आगे चलकर गणेश विसर्जन की परंपरा का आधार बनी।
हिंदू शास्त्रों में मिट्टी से बनी मूर्ति को भगवान के स्वरूप में स्थापित कर पूजा करने की परंपरा है। पूजा पूर्ण होने के बाद उसी मूर्ति का विसर्जन किया जाता है, जिससे यह संदेश मिलता है कि जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं है। यह परंपरा भक्तों को यह भी सिखाती है कि ईश्वर का वास्तविक वास हमारे हृदय और आचरण में है, न कि केवल मूर्ति में। इसलिए पूजा सम्पन्न होने के बाद मूर्ति को उसी पंचतत्व में विलीन कर दिया जाता है, जिससे वह बनी होती है।
गणपति विसर्जन सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह जीवन के गहरे संदेश भी देता है। मिट्टी से बनी मूर्ति जब जल में विलीन होती है तो यह दर्शाता है कि जीवन भी अस्थायी है और अंततः सबको प्रकृति में लौटना होता है। साथ ही, यह उत्सव समाज में एकता, भाईचारा और उत्सवधर्मिता का भी प्रतीक है।