रक्षाबंधन का पर्व आज जिस रूप में मनाया जाता है, उसकी जड़ें बेहद गहराई तक पौराणिक कथाओं में फैली हुई हैं। राखी केवल एक धागा नहीं, बल्कि रक्षक का वचन है और यह परंपरा हजारों साल पुरानी है। धार्मिक ग्रंथों और महापुराणों में रक्षासूत्र से जुड़ी कई कथाएं मिलती हैं, लेकिन इनमें दो कथाएं सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं—एक महाभारत काल की और दूसरी विष्णु-लक्ष्मी और राजा बलि से जुड़ी।
महाभारत के अनुसार, एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया था। उस समय उनकी अंगुली कट गई और खून बहने लगा। वहां मौजूद द्रौपदी ने बिना देर किए अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर कृष्ण की अंगुली पर पट्टी बांध दी। कृष्ण भावुक हो उठे और उन्होंने द्रौपदी से वचन दिया—"मैं इस ऋण को कभी नहीं भूलूंगा।"
समय आया द्रौपदी के चीरहरण का, जब सभा में किसी ने साथ नहीं दिया, तब वही वचन निभाते हुए श्रीकृष्ण ने चमत्कार से द्रौपदी की लाज बचाई। यही वह क्षण था, जिसने राखी को केवल एक रस्म नहीं, बल्कि रक्षा के पवित्र बंधन का प्रतीक बना दिया।
एक अन्य कथा भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी की है। राजा बलि भगवान विष्णु के परम भक्त थे। उन्होंने यज्ञ के माध्यम से उन्हें प्रसन्न किया और जब भगवान ने वामन अवतार लेकर तीन पग भूमि मांगी, तो राजा बलि ने सब कुछ दान कर दिया। तीसरे पग के लिए उन्होंने अपना सिर प्रस्तुत किया, जिससे भगवान को पाताल लोक जाना पड़ा।
देवी लक्ष्मी अपने पति के वियोग में दुखी थीं। उन्होंने एक ब्राह्मणी का रूप धारण किया और राजा बलि के पास पहुंचीं। रक्षा बंधन के दिन उन्हें राखी बांधी। जब बलि ने वरदान मांगा, तब लक्ष्मी ने अपने असली रूप में आकर विष्णु को वापिस मांग लिया। राजा बलि ने वचन निभाया और भगवान विष्णु को लौटा दिया।