वट सावित्री व्रत हिन्दू विवाहित महिलाओं का अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व है। इस व्रत की परम्परा सावित्री और सत्यवान की प्रसिद्ध कथा पर आधारित है, जिसमें सावित्री ने अपने तप और सत्यनिष्ठा से मृत्यु देवता से अपने पति का जीवन वापस पाया था। इसी कारण यह व्रत पतिव्रता, निष्ठा और अटूट दाम्पत्य प्रेम का प्रतीक माना जाता है। वर्ष 2026 में उत्तर भारत में पूर्णिमांत पंचांग के अनुसार यह व्रत 16 मई को ज्येष्ठ अमावस्या के दिन मनाया जाएगा, जबकि महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत में अमांत पंचांग के अनुसार यह व्रत 29 जून को ज्येष्ठ पूर्णिमा को रखा जाएगा। दोनों ही परम्पराओं में पूजा विधि और पौराणिक कथा समान है।
भारतीय पंचांग परम्पराओं में वट सावित्री व्रत को लेकर दो अलग मान्यताएं हैं। उत्तर भारतीय राज्यों में पूर्णिमांत पंचांग का पालन होता है और वहां वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ अमावस्या के दिन किया जाता है। वर्ष 2026 में यह तिथि 16 मई को पड़ रही है। इस दिन शनि जयंती भी होगी। इसके विपरीत महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत में अमांत पंचांग का पालन होता है, जिसमें वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ पूर्णिमा को मनाया जाता है। वर्ष 2026 में यह तिथि 29 जून को रहेगी। अमावस्या तिथि 16 मई को प्रातः 5 बजकर 11 मिनट से प्रारम्भ होकर 17 मई को रात 1 बजकर 30 मिनट पर समाप्त होगी।
हिन्दू धर्मग्रन्थों में बरगद का वृक्ष त्रिमूर्ति का प्रतीक माना गया है। इसके मूल में ब्रह्मा, तने में विष्णु और शाखाओं में शिव का वास बताया गया है। इस कारण बरगद की पूजा को अत्यंत शुभ माना जाता है। स्कन्द पुराण, भविष्योत्तर पुराण और महाभारत तक में वट सावित्री व्रत की महिमा का उल्लेख मिलता है। यह व्रत पति के अच्छे स्वास्थ्य, दीर्घायु और परिवार की समृद्धि के लिए किया जाता है। यह व्रत स्त्री के समर्पण, प्रेम, तप और दृढ़ता का प्रतीक माना जाता है। इस दिन की गई पूजा से सौभाग्य और पारिवारिक सुख में वृद्धि होती है।
व्रत रखने वाली महिलाएं सूर्योदय से पहले स्नान कर स्वच्छ पीले या लाल वस्त्र धारण करती हैं। वे चूड़ियां, बिंदी और सिन्दूर लगाकर सुहाग का प्रतीक श्रृंगार करती हैं। पूजा के समय महिलाएं बरगद के वृक्ष के पास जाकर जल, चावल, पुष्प और रोली अर्पित करती हैं। इसके बाद वृक्ष के तने के चारों ओर लाल या पीला धागा लपेटकर परिक्रमा की जाती है। कई स्थानों पर व्रतधारिणी महिलाएं बरगद की जड़ का सूक्ष्म अंश जल के साथ ग्रहण करती हैं। यदि बरगद का वृक्ष उपलब्ध न हो, तो लकड़ी के पाट पर चंदन या हल्दी से वट वृक्ष का चित्र बनाकर पूजा की जाती है। पूजा समाप्त होने के बाद प्रसाद वितरित किया जाता है और महिलाएं घर के बुजुर्गों का आशीर्वाद लेती हैं।
पुराणों के अनुसार राजा अश्वपति निःसंतान थे। उन्होंने सूर्य देव सावित्र की कठोर उपासना की, जिससे प्रसन्न होकर देव ने उन्हें एक कन्या का वरदान दिया। उस कन्या का नाम सावित्री रखा गया। जब विवाह योग्य आयु हुई, तो सावित्री ने स्वयंवर हेतु भ्रमण किया और वन में राजा द्यमत्सेन के पुत्र सत्यवान को जीवनसाथी के रूप में चुना। नारद मुनि ने चेतावनी दी कि सत्यवान एक वर्ष में मृत्यु को प्राप्त होगा, मगर सावित्री ने दृढ़ निश्चय के साथ सत्यवान से ही विवाह किया।
एक वर्ष बाद नियत दिन सत्यवान वन में लकड़ी काटते समय बेहोश होकर गिर पड़ा। यम ने उसकी आत्मा लेनी चाही, पर सावित्री उनके पीछे चलती रही। उसके तप, समर्पण और बुद्धिमत्ता से प्रसन्न होकर यम ने तीन वरदान दिए। सावित्री ने पहला वरदान ससुर का राज्य और दृष्टि, दूसरा वरदान अपने पिता के लिए पुत्र और तीसरा सत्यवान के लिए संतान माँगी। तीसरा वरदान सुनकर यम अपने आप विरोधाभास में फंस गए और उन्हें सत्यवान का जीवन लौटाना पड़ा। इसी घटना की स्मृति में वट सावित्री व्रत का पालन किया जाता है।