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कीलकम् का पाठ देवी कवचम् और अर्गला स्तोत्रम् के बाद किया जाता है और इसके बाद वेदोक्तम रात्रि सूक्तम् का पाठ किया जाता है। कीलकम् एक महत्वपूर्ण स्तोत्र है जो चण्डी पाठ से पहले सुनाया जाता है। कीलक का अर्थ है तंत्र देवता और किसी के भी प्रभाव को नष्ट करने वाला मंत्र। देवी भगवती के अनेकानेक मंत्र हैं। संपूर्ण दुर्गा सप्तशती के मंत्रों में तीन तत्वों की प्रधानता है। वशीकरण, सम्मोहन और मारण। यानी तीनों ही दृष्टि से ये मंत्र उच्चाटन और कीलक की श्रेणी में आते हैं। कई बार शंका होती है कि कीलक को समझे बिना यदि श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ किया जाए तो क्या होगा? किसी अनिष्ट की आशंका से लोग ग्रस्त रहते हैं। श्री दुर्गा सप्तशती में भगवान शंकर ने समस्त देवी पाठ को ही कीलक कर दिया यानी गुप्त कर दिया। इसको केवल विद्वान ही जान सकता है। मंत्रों के निर्माण के समय भगवान शंकर ने समस्त मंत्र बांट दिए। अपने पास रखा सिर्फ हौं मंत्र.। भगवान शंकर ने राम नाम मंत्र को अपने पास रखकर देवी भगवती के समस्त मंत्रों को गुप्त कर दिया। जितने भी बीज मंत्र हैं, वह गुप्त हैं। दश महाविद्याओं के बीज मंत्र कीलक हैं। ऊं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे मंत्र भी गुप्त है।
नवरात्रि में आप कीलक स्तोत्र का पाठ कर सकते हैं, इसके अलावा शुक्रवार का दिन भी मातारानी को ही समर्पित है, इस दिन भी आप श्रद्धापूर्वक इस स्तोत्र का पाठ कर सकते हैं। शुभ समय के बारे में बात करें तो ब्रह्म मुहूर्त पाठ करने के लिए सबसे अच्छा समय माना जाता है। इसके अलावा नीचे दिए गए समयानुसार भी आप पाठ कर सकते हैं-
ॐ अस्य श्रीकीलकमन्त्रस्य शिव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहासरस्वती देवता,श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थं सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।
ॐ नमश्चण्डिकायै॥
मार्कण्डेय उवाच
ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे।
श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे॥1॥
सर्वमेतद्विजानीयान्मन्त्राणामभिकीलकम्।
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जाप्यतत्परः॥2॥
सिद्ध्यन्त्युच्चाटनादीनि वस्तूनि सकलान्यपि।
एतेन स्तुवतां देवी स्तोत्रमात्रेण सिद्ध्यति॥3॥
न मन्त्रो नौषधं तत्र न किञ्चिदपि विद्यते।
विना जाप्येन सिद्ध्येत सर्वमुच्चाटनादिकम्॥4॥
समग्राण्यपि सिद्ध्यन्ति लोकशङ्कामिमां हरः।
कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं शुभम्॥5॥
स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च गुप्तं चकार सः।
समाप्तिर्न च पुण्यस्य तां यथावन्नियन्त्रणाम्॥6॥
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेवं न संशयः।
कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः॥7॥
ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति।
इत्थंरुपेण कीलेन महादेवेन कीलितम्॥8॥
यो निष्कीलां विधायैनां नित्यं जपति संस्फुटम्।
स सिद्धः स गणः सोऽपि गन्धर्वो जायते नरः॥9॥
न चैवाप्यटतस्तस्य भयं क्वापीह जायते।
नापमृत्युवशं याति मृतो मोक्षमवाप्नुयात्॥10॥
ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत न कुर्वाणो विनश्यति।
ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं प्रारभ्यते बुधैः॥11॥
सौभाग्यादि च यत्किञ्चिद् दृश्यते ललनाजने।
तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जाप्यमिदं शुभम्॥12॥
शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे सम्पत्तिरुच्चकैः।
भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव तत्॥13॥
ऐश्वर्यं यत्प्रसादेन सौभाग्यारोग्यसम्पदः।
शत्रुहानिःपरो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैः॥14॥
॥ इति देव्याः कीलकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥