पित्रोः पादाब्जसेवागतगिरितनयापुत्रपत्रातिभीतक्षुभ्यद्भूषाभुजङ्गश्वसनगुरुमरुद्दीप्तनेत्राग्नितापात् ।
स्विद्यन्मौलीन्दुखण्डनुतबहुलसुधासेकसंजातजीवा
पूर्वाधीतं पठन्ती ह्यावतु विधिशिरोमालिका शूलिनो वः ॥
॥ इति शिवशिरोमालिकास्तुतिः सम्पूर्णा ॥
जब पार्वतीपुत्र कार्तिकेय अपने माता-पिता के चरणकमलों की सेवा हेतु वाहन पर आरूढ़ होकर उपस्थित होते हैं, तब उनका मयूर वाहन भगवान शिव के गले के नागाभूषणों को भयभीत कर देता है। इससे वे नाग क्षुब्ध होकर गहरी साँसें लेते हैं और उस श्वास से शिवजी के नेत्रों में अग्नि-सदृश ताप उत्पन्न होता है। इस ताप के कारण जटाजूट में स्थित चन्द्रमा का टुकड़ा (चन्द्रखण्ड) पिघलने लगता है।
उस पिघलते चन्द्रखण्ड से बहती अमृतधारा शिव के गले में धारण की हुई ब्रह्माजी की कपालमाला (मुण्डमाला) को स्नान कराती है। इससे निर्जीव मुण्ड पुनः जीवित हो उठते हैं और वे अपने पूर्वकाल में पढ़े हुए वेद और शास्त्रों का पाठ करने लगते हैं।
ऐसे त्रिशूलधारी भगवान शिव के गले की वह ब्रह्ममुण्डमाला आप सबकी रक्षा करे।