ध्यानम्
ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं
रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
पद्मासीनं समन्तात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं
विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पञ्चवां त्रिनेत्रम्॥
स्तोत्रम्
पशुपतिं द्युपतिं धरणीपतिं भुजगलोकपतिं च सतीपतिम्।
प्रणतभक्तजनार्तिहरं परं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥ १ ॥
न जनको जननी न च सोदरो न तनयो न च भूरिबलं कुलम्।
अवति कोऽपि न कालवशं गतं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥ २ ॥
मुरजडिण्डिमवाद्यविलक्षणं मधुरपञ्चमनादविशारदम्।
प्रमथभूतगणैरपि सेवितं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥ ३ ॥
शरणदं सुखदं शरणान्वितं शिव शिवेति शिवेति नतं नृणाम्।
अभयदं करुणावरुणालयं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥ ४ ॥
नरशिरोरचितं मणिकुण्डलं भुजगहारमुदं वृषभध्वजम्।
चितिरजोधवलीकृतविग्रहं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥ ५ ॥
मखविनाशकरं शशिशेखरं सततमध्वरभाजिफलप्रदम्।
प्रलयदग्धसुरासुरमानवं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥ ६ ॥
मदमपास्य चिरं हृदि संस्थितं मरणजन्मजराभयपीडितम्।
जगदुदीक्ष्य समीपभयाकुलं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥ ७ ॥
हरिविरञ्चिसुराधिपपूजितं यमजनेशधनेशनमस्कृतम्।
त्रिनयनं भुवनत्रितयाधिपं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम्॥ ८ ॥
पशुपतेरिदमष्टकमद्भुतं विरचितं पृथिवीपतिसूरिणा।
पठति संशृणुते मनुजः सदा शिवपुरीं वसते लभते मुदम्॥ ९ ॥
॥ इति श्रीपृथिवीपतिसूरिविरचितं श्रीपशुपत्यष्टकं सम्पूर्णम् ॥
ध्यान
जो महेश्वर चाँदी के पर्वत जैसे उज्ज्वल, मनोहर चन्द्रमाकी मणि-मुकुटधारी, रत्नाभूषणोंसे सुशोभित, परशु, मृग, वर और अभय मुद्रा धारक, प्रसन्नमुख, कमलासनस्थ, देवताओंद्वारा स्तुत, व्याघ्रचर्मवस्त्रधारी, जगत् के आदि, बीजस्वरूप, समस्त भयोंके विनाशक, पाँचमुखी और त्रिनेत्रधारी हैं — उनका नित्य ध्यान करें।
स्तोत्र
हे मनुष्यों! जो पशु, स्वर्ग, पृथ्वी और नागलोकके स्वामी हैं, सतीपतिशिव हैं, भक्तों की पीड़ा दूर करते हैं, उन गिरिजापति का भजन करो ॥1॥
काल के वश में पड़े हुए को पिता, माता, भाई, पुत्र, कुल या बल कोई नहीं बचा सकता, इसलिये हे मनुष्यों! गिरिजापति का भजन करो ॥2॥
जो मृदंग-डमरू वादन में निपुण हैं, मधुर पंचमस्वर में गायन करने वाले हैं, प्रमथ-भूतगण जिनकी सेवा करते हैं — उन गिरिजापति का भजन करो ॥3॥
'शिव! शिव!' कहकर जिनको मनुष्य प्रणाम करते हैं, जो शरणागत को सुख, शरण और अभय प्रदान करते हैं — उन करुणामय गिरिजापति का भजन करो ॥4॥
जो नरमुण्डों के कुण्डल और सर्पों के हार पहनते हैं, जिनका शरीर चिता की राख से ढका है, वृषध्वजधारी हैं — उन गिरिजापति का भजन करो ॥5॥
जिन्होंने दक्ष यज्ञ को विध्वंस किया, जो चन्द्रमाधारी हैं, यज्ञ करने वालों को फल देते हैं और प्रलय अग्नि से सुर, असुर, मनुष्यों को भस्म करते हैं — उन गिरिजापति का भजन करो ॥6॥
हे मनुष्यों! संसार को मृत्यु, जन्म, वृद्धावस्था और भय से व्याकुल देख, हृदय में बसे मद का परित्याग कर — गिरिजापति का भजन करो ॥7॥
विष्णु, ब्रह्मा और इन्द्र जिनकी पूजा करते हैं, यम, कुबेर और अन्य देवता जिनको नमस्कार करते हैं, तीन नेत्रधारी, त्रिभुवन अधिपति — उन गिरिजापति का भजन करो ॥8॥
जो मनुष्य इस अद्भुत पशुपत्याष्टक का नित्य पाठ या श्रवण करता है, वह शिवपुरी में निवास करता है और परमानन्द प्राप्त करता है ॥9॥
यह भी अवश्य जानें