बृहस्पतिरुवाच
जय शङ्कर शान्त शशाङ्करुचे रुचिरार्थद सर्वद सर्वशुचे।
शुचिदत्तगृहीतमहोपहते हृतभक्तजनोद्धततापतते ॥ १ ॥
ततसर्वहृदम्बर वरद नते नतवृजिनमहावनदाहकृते
कृतविविधचरित्रतनो सुतनो तनुविशिखविशोषणधैर्यनिधे ॥ २ ॥
निधनादिविवर्जित कृतनतिकृत् कृतिविहितमनोरथपन्नगभृत्।
नगभर्तृसुतार्पितवामवपुः स्ववपुः परिपूरितसर्वजगत् ॥ ३ ॥
त्रिजगन्मयरूप विरूप सुदृग् दृगुदञ्चन कुञ्चनकृतहुतभुक् ।
भव भूतपते प्रमथैकपते पतितेष्वपि दत्तकरप्रसृते ॥ ४ ॥
प्रसृताखिलभूतलसंवरण प्रणवध्वनिसौधसुधांशुधर ।
धरराजकुमारिकया परया परितः परितुष्ट नतोऽस्मि शिव ॥ ५ ॥
शिव देव गिरीश महेश विभो विभवप्रद गिरिश शिवेश मृड ।
मृडयोडुपतिध्र जगत्त्रितयं कृतयन्त्रणभक्तिविघातकृताम् ॥ ६ ॥
न कृतान्तत एषविभेमि हर प्रहराशु महाघममोघमते ।
न मतान्तरमन्यदवैमि शिवं शिवपादनतेः प्रणतोऽस्मि ततः ॥ ७ ॥
विततेऽत्र जगत्यखिले ऽघहरं हरतोषणमेव परं गुणवत्।
गुणहीनमहीनमहावलयं प्रलयान्तकमीश नतोऽस्मि ततः ॥ ८ ॥
इति स्तुत्वा महादेवं विररामाङ्गिरः सुतः ।
व्यतरच्च महेशानः स्तुत्या तुष्टो वरान् बहून् ॥ ९ ॥
बृहता तपसाऽनेन बृहतां पतिरेध्यहो
नाम्ना बृहस्पतिरिति ग्रहेष्वर्थ्यो भव द्विज ॥ १० ॥
अस्य स्तोत्रस्य पठनादपि वागुदियाच्च यम् ।
तस्य स्यात् संस्कृता वाणी त्रिभिर्व स्त्रिकालतः ॥ ११ ॥
अस्य स्तोत्रस्य पठनान्नियतं मम संनिधौ ।
न दुर्वृत्तौ प्रवृत्तिः स्यादविवेकवतां नृणाम् ॥ १२॥
अदः स्तोत्रं पठञ्जन्तुर्जातु पीडां ग्रहोद्भवाम् ।
न प्राप्स्यति ततो जप्यमिदं स्तोत्रं ममाग्रतः ॥ १३ ॥
नित्यं प्रातः समुत्थाय यः पठिष्यति मानवः ।
इमां स्तुतिं हरिष्येऽहं तस्य बाधाः सुदारुणाः ॥ १४ ॥
त्वत्प्रतिष्ठितलिङ्गस्य पूजां कृत्वा प्रयत्नतः ।
इमां स्तुतिमधीयानो मनोवाञ्छामवाप्स्यति ॥ १५ ॥
॥ इति श्रीस्कन्दमहापुराणे काशीखण्डे महादेवस्तुतिः सम्पूर्णा ॥
बृहस्पति जी बोले—
चन्द्रमा के समान गौर कान्तिवाले, शान्तस्वरूप शंकर! आपकी जय हो।
आप रुचि के अनुकूल मनोहर पदार्थों एवं चारों पुरुषार्थों को देनेवाले हैं।
आप सर्वस्वरूप, सब कुछ देनेवाले तथा नित्य शुद्ध हैं।
पवित्र भक्तों द्वारा शुद्ध भाव से दी हुई महती उपहार सामग्री ग्रहण करते हैं।
भक्तजनों पर आयी हुई घोर संताप-परम्परा का आप नाश करनेवाले हैं ॥१॥
आपने सबके हृदयाकाश को व्याप्त कर रखा है।
प्रणतजनों को आप मनोवांछित वर देनेवाले हैं।
शरणागत भक्तों के पापरूपी महान् वन को जलाने के लिये आप दावानल स्वरूप हैं।
अपने शरीर से भाँति-भाँति की लीलाएँ करते रहते हैं।
आपका श्रीअंग परम सुन्दर है। आप कामदेव के बाणों को सुखा देनेवाले हैं।
धैर्यनिधे! आपकी जय हो ॥२॥
आप मृत्यु आदि विकारों से सर्वथा रहित हैं तथा
अपने चरणों में प्रणाम करनेवाले भक्तों को भी मृत्यु आदि विकारों से रहित कर देते हैं।
पुण्यात्मा पुरुषों का मनोरथ पूर्ण करते और सर्पों को आभूषण रूप में धारण करते हैं।
आपका वामांगभाग गिरिराजकुमारी उमा से व्याप्त है।
आपने अपने सर्वव्यापी स्वरूप से सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कर रखा है ॥३॥
तीनों लोक आपके ही स्वरूप हैं, फिर भी आप इन सभी रूपों से परे हैं।
आपकी दृष्टि बड़ी सुन्दर है।
आप अपने नेत्रों के खोलने-मींचने से जगत की सृष्टि और प्रलय करते हैं।
आपने ही अग्निदेव को प्रकट किया है।
जगत को उत्पन्न करनेवाले भूतनाथ!
एकमात्र आप ही प्रमथगणों के पालक और स्वामी हैं।
अपनी शरण में आये हुए पतितजनों पर भी आप अपना वरदहस्त फैलाते रहते हैं ॥४॥
आप सम्पूर्ण भूतल में फैले हुए आवरण का निवारण करनेवाले तथा
प्रणवनादरूपी सुधाधौलीगृह में निवास करनेवाले हैं।
आपने चन्द्रमा को अपने ललाट में धारण कर रखा है।
गिरिराजकुमारी पार्वती के द्वारा सर्वथा संतुष्ट रहनेवाले शिव!
मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥५॥
शिव! देव! गिरीश! महेश! विभो!
आप विभव (धन-संपत्ति आदि) प्रदान करनेवाले और कैलास पर्वत पर शयन करनेवाले हैं।
पार्वतीवल्लभ! आप सबको सुख देनेवाले हैं।
चन्द्रधर! आप भक्तिका विघात करनेवाले दुष्टों को कठोर दण्ड देनेवाले हैं।
तीनों लोकों को सुखी बनाइये ॥६॥
सबकी पीड़ा हरनेवाले महादेव! मैं काल से भी नहीं डरता।
अमोघमते! आप शीघ्र मेरी पापराशिका विनाश कीजिये।
शिव के चरणारविन्दों में नमस्कार करने के सिवा
दूसरी किसी विचारधारा को मैं जीवों के लिये कल्याणकारी नहीं मानता,
अतः आपके चरणों में ही मस्तक झुकाता हूँ ॥७॥
इस सम्पूर्ण विशाल जगत में भगवान शिव को संतुष्ट करना
ही सब पापों का नाश करनेवाला तथा परम गुणकारी है।
हे ईश! आप त्रिगुणमय प्रपंच से अतीत, नागराज वासुकि का महान् कंगन
धारण करनेवाले तथा प्रलयकाल में सबका विनाश करनेवाले हैं—
अतः मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥८॥
इस प्रकार महादेवजी की स्तुति करके बृहस्पतिजी मौन हो गये।
इस स्तुतिसे संतुष्ट होकर महादेवजी ने बहुत से वर प्रदान करते हुए कहा—
"अहो ब्रह्मन्! तुमने बृहत् तप किया है,
इसलिये बृहत् अर्थात् बड़े-बड़े देवताओं के पति (पालक) बने रहो।
तुम ग्रहों में बृहस्पति नाम से पूजित होओ" ॥९–१०॥
स्तोत्र के पाठ के फल
जो पुरुष इस स्तोत्र का तीन वर्षों तक तीनों समय पाठ मात्र भी करेगा,
उसकी वाणी पर सरस्वती का उदय होगा और वाणी परिष्कृत हो जाएगी ॥११॥
मेरी संनिधि में निरन्तर इस स्तोत्र के पाठ से
अविवेकी जनों की भी दुराचार में प्रवृत्ति नहीं हो सकती ॥१२॥
महेश्वर के इस स्तोत्र का पाठ करने से
मनुष्य ग्रहजनित पीड़ा प्राप्त नहीं करता,
इसलिये मेरे समीप इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिये ॥१३॥
जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर नित्य इस स्तोत्र का पाठ करेगा,
मैं उसकी महान्-से-महान् दारुण बाधा हरण कर लूँगा ॥१४॥
तुम्हारे द्वारा [काशी में] स्थापित की हुई इस मूर्ति [बृहस्पतीश्वर महादेव] की प्रयत्नपूर्वक पूजा करके इस स्तुति का पाठ करनेवाला मनोवांछित फल प्राप्त करेगा ॥१५॥
॥ इस प्रकार श्री स्कन्दमहापुराण के काशी खण्ड में महादेव स्तुति सम्पूर्ण हुई ॥
कोई जब राह ना पाए,
शरण तेरी आए,
करते सब पर दया की नज़र,
शिव भोले शंकर,
करूँ वंदन हे शिव नंदन,
तेरे चरणों की धूल है चन्दन,
करुणामयी किरपामयी,
मेरी दयामयी राधे ॥