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Shiva Raksha Stotram (शिवरक्षास्तोत्रम्)

Shiva Raksha Stotram (शिवरक्षास्तोत्रम्)

शिवरक्षास्तोत्रम् हिंदी अर्थ सहित

विनियोगः

 ॐ अस्य श्रीशिवरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य याज्ञवल्क्य ऋषिः,

 श्रीसदाशिवो देवता, अनुष्टुप् छन्दः,

 श्रीसदाशिवप्रीत्यर्थं शिवरक्षास्तोत्रजपे विनियोगः ॥

 चरितं देवदेवस्य महादेवस्य पावनम् ।

 अपारं परमोदारं चतुर्वर्गस्य साधनम् ॥

 गौरीविनायकोपेतं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रकम् ।

 शिवं ध्यात्वा दशभुजं शिवरक्षां पठेन्नरः ॥

 गङ्गाधरः शिरः पातु भालमर्धेन्दुशेखरः ।

 नयने मदनध्वंसी कर्णी सर्पविभूषणः ॥

 घ्राणं पातु पुरारातिर्मुखं पातु जगत्पतिः ।

 जिह्वां वागीश्वरः पातु कन्धरां शितिकन्धरः ॥

 श्रीकण्ठः पातु मे कण्ठं स्कन्धौ विश्वधुरन्धरः ।

 भुजौ भूभारसंहर्ता करौ पातु पिनाकधृक् ॥

 हृदयं शङ्करः पातु जठरं गिरिजापतिः ।

 नाभिं मृत्युञ्जयः पातु कटीं व्याघ्राजिनाम्बरः ॥

 सक्थिनी पातु दीनार्तशरणागतवत्सलः ।

 ऊरू महेश्वरः पातु जानुनी जगदीश्वरः ॥

 जङ्गे पातु जगत्कर्ता गुल्फौ पातु गणाधिपः ।

 चरणौ करुणासिन्धुः सर्वाङ्गानि सदाशिवः ॥

 एतां शिवबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् ।

 स भुक्त्वा सकलान् कामान् शिवसायुज्यमाप्नुयात् ॥ 11॥

 ग्रहभूतपिशाचाश्च त्रैलोक्ये विचरन्ति ये ।

 दूरादाशु पलायन्ते शिवनामाभिरक्षणात् ॥

 अभयंकरनामेदं कवचं पार्वतीपतेः ।

 भक्त्या बिभर्ति यः कण्ठे तस्य वश्यं जगत्त्रयम् ॥

 इमां नारायणः स्वप्ने शिवरक्षां यथाऽऽदिशत् ।

 प्रातरुत्थाय योगीन्द्रो याज्ञवल्क्यस्तथाऽलिखत् ॥ 

॥ इति श्रीयाज्ञवल्क्यप्रोक्तं शिवरक्षास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

भावार्थ - 

विनियोग:

इस शिवरक्षा स्तोत्र के ऋषि याज्ञवल्क्य हैं, देवता श्रीसदाशिव हैं और छन्द अनुष्टुप है। श्रीसदाशिव की प्रसन्नता के लिए इस स्तोत्र का जप किया जाता है।

देवाधिदेव महादेव का यह परम पवित्र चरित्र चारों पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की सिद्धि का साधन है। इसकी महिमा अथाह है।

गौरी और विनायक से युक्त, पाँच मुख और तीन नेत्रों वाले, दस भुजाओं से सुशोभित भगवान् शिव का ध्यान करके मनुष्य को शिवरक्षा स्तोत्र का पाठ करना चाहिए।

गंगा को जटाओं में धारण करनेवाले गंगाधर मेरे मस्तक की, अर्धचन्द्र को धारण करनेवाले अर्धेन्दुशेखर मेरे ललाट की, कामदेव का नाश करनेवाले शिव मेरे नेत्रों की तथा सर्प को आभूषण की तरह धारण करनेवाले शिव मेरे कानों की रक्षा करें।

त्रिपुरासुर का वध करनेवाले भगवान् शिव मेरी नासिका की, जगत् के पालक मेरे मुख की, वाणी के स्वामी मेरी जिह्वा की और नीलकंठ मेरी गर्दन की रक्षा करें।

श्रीकण्ठ मेरे कंठ की, विश्वधुरी को धारण करनेवाले मेरे कंधों की, दैत्यों का नाश करनेवाले मेरी भुजाओं की, पिनाकधारी शिव मेरे हाथों की रक्षा करें।

भगवान् शंकर मेरे हृदय की, गिरिजापति मेरे उदर की, मृत्युंजय मेरी नाभि की और व्याघ्रचर्म पहननेवाले भगवान् शिव मेरी कटि की रक्षा करें।

दीन-दुखियों के रक्षक मेरी जांघों की, महेश्वर मेरे ऊरुओं की और जगदीश्वर मेरे घुटनों की रक्षा करें।

जगत्कर्ता मेरी पिंडली की, गणों के अधिपति मेरे टखनों की, करुणासिन्धु मेरे चरणों की और सर्वांगों की रक्षा करें सदाशिव।

जो पुण्यात्मा यह स्तोत्र श्रद्धा से पढ़ता है, वह समस्त भोगों का उपभोग करके शिव के सायुज्य को प्राप्त करता है।

त्रिलोक में जो ग्रह, भूत, पिशाच आदि विचरण करते हैं, वे इस स्तोत्र के पाठमात्र से ही दूर भाग जाते हैं।

जो भक्त श्रद्धा से पार्वतीपति शिव के इस ‘अभयंकर’ कवच को गले में धारण करता है, तीनों लोक उसके वश में हो जाते हैं।

भगवान् नारायण ने इस स्तोत्र का स्वप्न में उपदेश किया, जिसे प्रातः उठकर योगी याज्ञवल्क्य मुनि ने लिख लिया।

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