स पातु वो यस्य जटाकलापे
स्थितः शशाङ्कः स्फुटहारगौरः ।
नीलोत्पलानामिव नालपुञ्जे
निद्रायमाणः शरदीव हंसः ॥ १॥
जगत्सिसृक्षाप्रलयक्रियाविधौ
प्रयलमुन्मेषनिमेषविभ्नमम् ।
वदन्ति यस्येक्षणलोलपक्ष्मणां
पराय तस्मै परमेष्ठिने नमः ॥ २॥
व्योम्नीव नीरदभरः सरसीव वीचि-
व्यूहः सहस्रमहसीव सुधांशुधाम ।
यस्मिन्निदं जगदुदेति च लीयते च
तच्छाम्भवं भवतु वैभवमृद्धये वः ॥ ३॥
यः कन्दुकैरिव पुरन्दरपद्मसदा-
पद्यापतिप्रभृतिभिः प्रभुरप्रमेयः ।
खेलत्यलङ्घ्यमहिमा स हिमाद्रिकन्या-
कान्तः कृतान्तदलनो गलयत्वघं वः ॥ ४॥
दिश्यात् स शीतकिरणाभरणः शिवं वो
यस्योत्तमाङ्गभुवि विस्फुरदुर्मिपक्षा ।
हंसीव निर्मलशशाङ्ककलामृणाल-
कन्दार्थनी सुरसरिन्नभतः पपात ॥ ५॥
॥ इति पशुपतिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
जिनके जटाजूट में स्थित गौरवर्ण का चन्द्रमा शरद् ऋतु में नील कमल के नालों में निद्रायमान हंस-सा प्रतीत होता है, ऐसे चन्द्रभूषण भगवान् पशुपति आप सभी की रक्षा करें ॥ १ ॥
जिन भगवान् पशुपति के चंचल नेत्रों का उन्मेष (खुलना), निमेष (बंद होना) और घूमना संसार की सृष्टि, स्थिति और संहार की क्रियाओं का प्रयत्न कहा जाता है, उन परम श्रेष्ठ परमेष्ठी को नमस्कार है ॥ २ ॥
जिनके भीतर यह समस्त जगत उसी प्रकार प्रकट और लीन होता है। जैसे आकाश में मेघपुंज, तालाब में तरंग समूह और सूर्य मण्डल में चन्द्रमा की किरणें; वे भगवान् शम्भु आप सभी को ऐश्वर्य और समृद्धि प्रदान करें ॥ ३ ॥
जो प्रभु इन्द्र, ब्रह्मा और विष्णु आदि देवताओं के साथ क्रोड़ा-कन्दुक की तरह सृष्टि में क्रीड़ा करते हैं,जिनकी महिमा अतीव और अनुलंघ्य है, जो कृतान्त (मृत्यु / यमराज) का विनाश करनेवाले हैं, हिमालय कन्या (पार्वती) के प्रियतम हैं। वे अप्रमेय भगवान पशुपति आप सबके पापों का नाश करें ॥ ४ ॥
जिनके सिर पर गंगा अपनी लहरों के साथ इस प्रकार उतरती हैं, जैसे निर्मल चन्द्रमा को मृणाल-कंद समझकर उसे पाने की इच्छा से अपने पंख फड़फड़ाती हुई हंसी आकाश से सरोवर में उतर रही हो, ऐसे शीतकिरणयुक्त चन्द्रमा को आभूषणरूप में धारण करने वाले भगवान शिव आप सभी का कल्याण करें ॥ ५ ॥
क्या वो करेगा लेके चढ़ावा,
सब कुछ त्याग के बैठा कहीं,
क्यों छुप के बैठते हो,
परदे की क्या जरुरत,
क्यों घबराता है,
पल पल मनवा बावरे,
भोले बाबा तेरी क्या ही बात है,
भोले शंकरा तेरी क्या ही बात है,