देवा दिक्पतयः प्रयात परतः खं मुञ्चताम्भोमुचः
पातालं व्रज मेदिनि प्रविशत क्षोणीतलं भूधराः ।
ब्रह्मनुन्नय दूरमात्मभुवनं नाथस्य नो नृत्यतः
शम्भोः सङ्कटमेतदित्यवतु वः प्रोत्सारणा नन्दिनः ॥ १॥
दोर्दण्डद्वयलीलयाऽचलगिरिभ्राम्यत्तदुच्चैरव-
ध्वानोद्भीतजगद्भ्रमत्पदभरालोलत्फणाग्र्योरगम् ।
भृङ्गापिङ्गजटाटवीपरिसरोद्गङ्गोर्मिमालाचलच्चन्द्रं
चारु महेश्वरस्य भवतां निःश्रेयसे मङ्गलम् ॥ २॥
सन्ध्याताण्डवडम्बरव्यसनिनो भर्गस्य चण्डभ्रमि-
व्यानृत्यद्भुजदण्डमण्डलभुवो झञ्झानिलाः पान्तु वः ।
येषामुच्छलतां जवेन झगिति व्यूहेषु भूमीभृता-
मुड्डीनेषु बिडौजसा पुनरसौ दम्भोलिरालोकितः ॥ ३॥
शर्वाणीपाणितालैश्चलवलयझणत्कारिभिः श्लाध्यमानं
स्थाने सम्भाव्यमानं पुलकितवपुषा शम्भुना प्रेक्षकेण ।
खेलत्पिच्छालिकेकाकलकलकलितं कौञ्चभिद्बर्हियूना
हेरम्बाकाण्डबृंहातरलितमनसस्ताण्डवं त्वा धिनोतु ॥ ४॥
देवस्त्रैगुण्यभेदात्सृजति वितनुते संहरत्येष लोकानस्यैव
व्यापिनीभिस्तनुभिरपि जगद्व्याप्तमष्टाभिरेव ।
वन्द्यो नास्येति पश्यन्निव चरणगतः पातु पुष्पाञ्जलिर्वः
शम्भोर्नृत्यावतारे वलयमणिफणाफूत्कृतैर्विप्रकीर्णः ॥ ५॥
इति शिवताण्डवस्तुतिः समाप्ता ।
[नन्दी ने भगवान् शंकर का ताण्डव नृत्य निर्विघ्न चलने के लिये कहा —]
हे देवताओ! तथा दिक्पतियो! यहाँ से कहीं और दूर हट जाओ।
जल बरसानेवाले बादलो! आकाश को छोड़ दो।
पृथ्वी! तू पाताल में चली जा।
पर्वतो! पृथ्वी के निचले भाग में प्रवेश कर जाओ।
ब्रह्मन्! तुम अपने लोक को कहीं दूर और ऊपर उठा लो;
क्योंकि मेरे स्वामी भगवान् शंकर के नृत्य के समय तुम सब संकट रूप हो।
इस प्रकार लोगों को दूर जाने के लिये की गयी नन्दी की घोषणा आप सबकी रक्षा करे। ॥१॥
ताण्डव नृत्य करते समय जब भगवान् शिव अपनी दोनों भुजाओं को लीलापूर्वक घुमाने लगे,
तो उन भुजाओं के घुमाने से अचल पर्वत भी घूमने लगे।
उनके घूमने से जो ध्वनि होती थी, वह बहुत ही ऊँची आवाज में होती थी,
जिससे संसार भयभीत हो जाता था।
और जब वे पादविक्षेप करते थे, तो उसके भार से
शेषनाग का अग्र (ऊपरी) फण भी चंचल हो उठता था।
इस प्रकार, भृंग (भौंरे) के समान कृष्ण एवं पीले जटासमूहों से,
गंगाजी की अनवरत बहती लहरों से और चंचल चन्द्रमावाले
महेश्वर का ताण्डव नृत्य हम सभी के लिये कल्याणकारी हो। ॥२॥
संध्याकालीन ताण्डव नृत्य में, डम्बर (डमरु) की चहल-पहल के व्यसनी भगवान् शंकर,
जब अपने दोनों भुजदण्डों को पृथ्वी के चारों ओर घुमाते,
प्रचण्ड रूप में नाचते हुए चक्कर काटने लगे,
तो सहसा उनके वेगपूर्वक उछलने से,
स्थान-स्थान पर पर्वतों के उड़ने की आवाज के डर से
इन्द्र ने भी एक बार फिर अपने वज्र की ओर देखा।
तत्कालीन ताण्डव नृत्य से होनेवाली भुजदण्डों की झंझावात
आप लोगों की रक्षा करे। ॥३॥
जब श्री गणेश जी के अंग पूर्ण हो गये,
तब क्रौंच का भेदन करनेवाले तरुण मयूरवाहक कार्तिकेय का मन
प्रसन्नता से आन्दोलित हो उठा।
उनका वाहन मयूर ‘केका’ ध्वनि के साथ नाचने लगा।
तब भगवती पार्वती अपने दोनों करतलों के बजाने से
उत्पन्न वलयों की झनकार से उसकी प्रशंसा करने लगीं।
उचित समय देखकर भगवान् शंकर भी प्रेक्षक के रूप में पुलकित मन से
उसे आदर देने लगे।
ऐसे भगवान् शिव का ताण्डव तुम्हें आनन्दित करे। ॥४॥
यह समस्त जगत भगवान् शिव की आठ मूर्तियों से व्याप्त है।
वे ही भगवान् शंकर सत्, रज और तम —
इन तीन गुणों का आधार बनकर लोकों की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं।
भगवान् शिव नृत्य करने से पूर्व जब अपने इष्टदेव को पुष्पांजलि समर्पित करते हैं,
तो वह पुष्पांजलि — यह देखकर कि इनसे बड़ा और कोई वन्दनीय नहीं है —
कर में कंकण के रूप में लिपटे सर्प की फुफकार से बिखरकर
भगवान् शिव के चरणों का स्पर्श करती है।
ऐसी पुष्पांजलि आप सबकी रक्षा करे। ॥५॥
॥ इस प्रकार शिवताण्डव स्तुति सम्पूर्ण हुई ॥
शिव शंकर तुम कैलाशपति,
है शीश पे गंग विराज रही,
शिव शंकर तुम्हरी जटाओ से,
गंगा की धारा बहती है,
मेलो फागण को खाटू में चालो,
श्याम ने रंगस्या जी,
हाथ जोड़ विनती करूं सुणियों चित्त लगाय,
दास आ गयो शरण में रखियो इसकी लाज,