स धूर्जटिजटाजूटो जायतां विजयाय वः ।
यत्रैकपलित भ्रान्तिं करोत्यद्यापि जाह्नवी ॥ १ ॥
चूडापीडकपालसंकुलगलन्मन्दाकिनीवारयो
विद्युत्प्रायललाटलोचनपुटज्योतिर्विमिश्रत्विषः ।
पान्तु त्वामकठोरकेतकशिखासंदिग्धमुग्धेन्दवो
भूतेशस्य भुजङ्गवल्लिवलयस्त्रद्धजूटा जटाः ॥ २ ॥
गङ्गावारिभिरुक्षिताः फणिफणैरुत्पल्लवास्तच्छिखा-
रत्नैः कोरकिताः सितांशुकलया स्मेरैकपुष्पश्रियः ।
आनन्दा श्रुपरिप्लुताक्षिहुत भुग्धूमैर्मिलद्दोहदा
नाल्पं कल्पलताः फलं ददतु वोऽभीष्टं जटा धूर्जटेः ॥ ३ ॥
॥ इति श्रीशिवजटाजूटस्तुतिः सम्पूर्णा ॥
श्रीशिवस्तुतिः
नमस्तुङ्गशिरश्चुम्बिचन्द्रचामरचारवे
त्रैलोक्यनगरारम्भमूलस्तम्भाय शम्भवे ॥ १ ॥
चन्द्राननार्धदेहाय चन्द्रांशुसितमूर्तये ।
चन्द्राकनलनेत्राय चन्द्रार्धशिरसे नमः ॥ २ ॥
॥ इति श्रीशिवस्तुतिः सम्पूर्णा ॥
जिन भगवान् शंकर के जटाजूट में निवास करनेवाली गंगा आज भी उनके बालों के एक पके हुए केश की भ्रांति उत्पन्न कर देती है — वे भगवान् धूर्जटि का वह जटाजूट आप सबके विजय के लिए हो।
भगवान शिव के सिर की जटा भुजंग (साँप)-रूपी लताओं की वलय (कंगन)-रूपी माला से बंधी हुई है। उससे शिरोभूषणों और कपालों से युक्त मंदाकिनी की जलधारा बह रही है। उनके ललाट से नेत्र से विद्युत के समान ज्योति निकल रही है। उस अवस्था में चंद्रमा ऐसा प्रतीत होता है मानो कोमल केतकी का पुष्प हो। ऐसा शिवजी का वह जटाजूट आप सभी की रक्षा करे।
धूर्जटि भगवान शिव की जटा निरंतर गंगाजल से अभिषिक्त हो रही है। सर्पों के फणों से जटा का अग्रभाग ऊपर उठे हुए पल्लवों जैसा प्रतीत होता है। फणों में जड़े रत्नों की ज्योति जटा में बिखरी हुई है। चंद्रमा की किरणों के कारण वह पुष्पों की छटा जैसी लगती है। आनन्दाश्रु से भरी आँखों के साथ (श्रद्धापूर्वक) की गई होमों के धुएँ से उत्पन्न जो दोहद (इच्छा-पूर्ति) हो, वह कल्पलता के समान वे जटाएँ आपको समस्त अभीष्ट फल प्रदान करें।
जो शिवजी ऊँचे शिखर को चूमने वाले — अर्थात् सिर पर चन्द्रमा रूपी चँवर धारण किए हैं, जो तीनों लोकों की नगरी के निर्माण में मूल स्तम्भ हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ।
जिनके आधे शरीर में चन्द्रमुखी पार्वती विद्यमान हैं, जिनकी मूर्ति चन्द्र की किरणों के समान उज्ज्वल है, जिनका एक नेत्र चन्द्र है, दूसरा सूर्य, और तीसरा अग्नि के समान ललाट में स्थित है — और जिनके सिर पर अर्धचन्द्र विराजमान है, ऐसे शिवजी को बारम्बार प्रणाम।