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कुल गुरू को नमन कर, स्मरण करूँ गणेश ।
फिर चरण रज सिर धरहँ, बह्मा, विष्णु, महेश ।।
वंश वृद्धि के दाता, श्री चित्रगुप्त महाराज ।
दो आशीष दयालु मोहि, सिद्ध करो सब काज ।।
जय चित्र विधान विशारद ।
जय कायस्थ वंशधर पारद ।।
बह्मा पुत्र पुलकित मन काया ।
जग मे सकल तुम्हारी माया ।।
लक्ष्मी के संग-संग उपजे ।
समुद्र मंथन में महा रजे ।।
श्याम बरण पुष्ट दीर्घ भुजा ।
कमल नयन और चक्रवृत मुखा ।।
शंख तुल्य सुन्दर ग्रीवा ।
पुरूष रूप विचित्रांग देवा ।।
सदा ध्यान मग्न स्थिर लोचन ।
करत कर्म के सतत निरीक्षण ।।
हाथ में कलम दवात धारी ।
हे पुरूषोत्तम जगत बिहारी ।।
अति बुद्धिमंत परम तेजस्वी ।
विशाल हृदय जग के अनुभवी ।।
अज अंगज यमपुर के वासी ।
सत धर्म विचारक विश्वासी ।।
चित्रांश चतुर बुद्धि के धनी ।
कर्म लेखापाल शिरोमणी ।।
तुम्हारे बिना किसी की न गति ।
नन्दिनी, शोभावती के पति ।।
संसार के सर्व सुख दाता ।
तुम पर प्रसन्न हुए विधाता ।।
चित्रगुप्त नाम बह्म ने दिया ।
कायस्थ कुल को विख्यात किया ।।
पिता ने निश्चित निवास किया ।
पर उपकारक उपदेश दिया ।।
तुम धर्माधर्म विचार करो ।
धर्मराज का जय भार हरो ।।
सत धर्म को महान बनाओ ।
जग में कुल संतान बढाओ ।।
फिर प्रगट भये बारह भाई ।
जिनकी महिमा कही न जाई ।।
धर्मराज के परम पियारे ।
काटो अब भव-बंधन सारे ।।
तुम्हारी कृपा के सहारे ।
सौदास स्वर्ग लोग सिहारे ।।
भीष्म पिता को दीर्घायु किया ।
मृत्यु वरण इच्छित वर दिया ।।
परम पिता के आज्ञा धारक ।
महिष मर्दिनी के आराधक ।।
वैष्णव धर्म के पालन कर्ता ।
सकल चराचर के दुःख हर्ता ।।
बुद्धिहीन भी बनते लायक ।
शब्द सिन्धु लेखाक्षर दायक ।।
लेखकीयजी विद्या के स्वामी ।
अब अज्ञान हरो अन्नंतयामी ।।
तुमको नित मन से जो ध्यावे ।
जग के सकल पदारथ पावे ।।
भानु, विश्वभानु, वीर्यवान ।
चारू, सुचारू, विभानु, मतिमान ।।
चित्र, चारूस्थ, चित्रधार, हिमवान ।
अतिन्द्रिय तुमको भजत सुजान ।
पापी पाप कर्म से छूटे ।
भोग-अभोग आनन्द लूटे ।।
विनती मेरी सुनो महाराज ।
कुमति निवारो पितामह आज ।।
यम द्वितीया को होय पूजा ।
तुमरे सम महामति न दूजा ।।
जो नर तुमरी शरण आवे ।
धूप, दीप नैवेद्य चढ़ावे ।।
शंख-भेरी मृदंग बजावे ।
पाप विनाशे, पुण्य कमावे ।।
जो जल पूरित नव कलश भरे ।
शक्कर ब्राह्मण को दान करे ।।
काम उसी के हो पुरे ।
काल कभी ना उसको घूरे ।।
महाबाहो वीरवर त्राता ।
तुमको भजकर मन हरसाता ।।
नव कल्पना के प्ररेणा कुंज ।
पुष्पित सदभावों के निकुंज ।।
कवि लेखक के तुम निर्माता ।
तुमरो सुयश ‘नवनीत’ गाता ।।
जो सुनहि, पढ़हिं चित्रगुप्त कथा ।
उसे न व्यापे, व्याधि व्यथा ।।
अल्पायु भी दीर्घायु होवे ।
जन्म भर के सब पाप धोवे ।।
संत के समान मुक्ति पावे ।
अंत समय विष्णु लोक जावे ।।
चित्त में जब चित्रगुप्त बसे, हृदय बसे श्रीराम ।
भव के आनन्द भोग कर मनुज पावे विश्राम ।।