सप्त मातृकाओं की पांचवीं शक्ति देवी वाराही

सप्त मातृकाओं की पांचवीं शक्ति देवी वाराही, जानें पूजा विधि और पौराणिक कथा


सप्त मातृकाओं में पांचवां स्थान देवी वाराही का है जो भगवान विष्णु के वराह अवतार की नारी शक्ति का प्रतीक है। नेपाल में देवी को बाराही कहा जाता है। वहीं राजस्थान और गुजरात में उन्हें दंडिनी के रूप में जाना जाता है। वाराही को आमतौर पर गुप्त और तांत्रिक क्रियाओं के लिए रात में पूजा जाता है। बौद्ध धर्म में देवी को वज्रवराही कहा गया है। मार्कंडेय पुराण और देवी महात्म्य में वर्णित शुंभ-निशुंभ कथा के अनुसार, मातृका देवी देवताओं के शरीर से उत्पन्न स्त्री शक्ति का प्रतीक है।


शास्त्रों में देवी वाराही का स्वरूप 


भगवान वराह से उत्पन्न वाराही की वराह स्वरूप में है जिनके हाथों में चक्र और तलवार हैं। और युद्ध के लिए तैयार है। देवी महात्म्य के अनुसार, राक्षस रक्तबीज का वध मैया ने इसी रूप में किया था। ऐसा भी कहा जाता है कि योद्धा देवी दुर्गा के इसी रूप ने स्वयं में से अन्य मातृकाओं को उत्पन्न किया है जो राक्षस सेना का वध करने में सहायक होती है।


शुम्भ के वध के लिए दुर्गा ने सभी मातृकाओं को अपने में समाहित कर लिया था। मां की सवारी भैंस है। वहीं एलोरा की गुफाओं में वाराही को मानव-चेहरे के साथ बताया गया है। यहां सात मातृकाओं के समूह को दर्शाया गया है जिसमें देवी वाराही के माथे पर तीसरी आंख या अर्धचंद्र हैं। वाराही को दो, चार, छह या आठ भुजाओं वाली देवी के रूप में वर्णित है।


पुराण के अनुसार, वाराही चंडिका की पीठ से उत्पन्न हुई 


मार्कंडेय पुराण के अनुसार, वाराही वरदान देने वाली और उत्तरी दिशा की अधिष्ठात्री देवी है। मत्स्य पुराण में वाराही की उत्पत्ति भगवान शिव द्वारा राक्षस अंधकासुर का संहार करने के लिए हुई थी। तांत्रिक ग्रंथ वाराही तंत्र में उल्लेख है कि वाराही के मुख्य पांच रूप हैं- स्वप्न वाराही, चंदा वाराही, माही वाराही या भैरवी, क्रक वाराही और मत्स्य वाराही।

मत्स्य पुराण, पूर्व-कर्णगम और रूपमंदना में देवी के चार भुजाओं वाले रूप का उल्लेख है। रूपमंदना के अनुसार, मैया हाथों में घंटा, चामर, चक्र, गदा हैं। वहीं देवी पुराण में तलवार, लोहे का खड्ग और फंदा बताया गया हैं। वहीं वराहिणी-निग्रहस्तक स्तोत्र, वामन पुराण, अग्नि पुराण और मंत्रमहोदधि में मैया के अलग-अलग रूपों का वर्णन है। 


पूजा और उसका लाभ 


वाराही रात की देवी हैं इसलिए उन्हें ध्रुमा वाराही, धूमावती या अंधेरे की देवी कहा जाता है। तंत्र के अनुसार, वाराही की पूजा सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पहले की जानी चाहिए। यह पूजा विधि परशुराम कल्पसूत्र में स्पष्ट रूप से लिखी है।

शाक्त गुप्त वाममार्ग तांत्रिक प्रथाओं द्वारा वाराही की पूजा पंचमकार यानी शराब, मछली, अनाज, मांस और अनुष्ठान मैथुन द्वारा की जाती हैं। गंगा के तट पर ऐसे अनुष्ठान देखें जा सकतें हैं। वाराही को समर्पित प्रार्थनाओं हेतु ग्रंथों में वाराही अनुग्रहष्टकम् और वाराही निग्रहष्टकम् शामिल हैं। यह दोनों तमिल भाषा में हैं। यह सब क्रिया तांत्रिक साधना हेतु है।


देवी वाराही के प्रमुख मंदिर 


उड़ीसा के कोणार्क से लगभग 14 किमी दूर चौरासी में 9वीं शताब्दी का वाराही मंदिर मौजूद है। इस मंदिर में वाराही मत्स्य वाराही के रूप में विराजमान हैं। वही वाराणसी में वाराही को पाताल भैरवी के रूप में पूजा जाता है। चेन्नई में मायलापुर में भी एक वाराही मंदिर है। देवी का एक प्राचीन मंदिर उथिराकोसमंगई में भी हैं। इसी क्रम में वाराही के आठ रूपों वाला अष्ट-वाराही मंदिर विल्लुपुरम के पास सलामेडु में स्थित है। केरल में पेट्टा, तिरुवनंतपुरम में श्री पंचमी देवी मंदिर देवी वाराही का एक प्रसिद्ध मंदिर है। 


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