आर्ष विवाह प्राचीन भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म में वर्णित विवाहों के आठ प्रकारों में से एक महत्वपूर्ण प्रकार है। इसका उल्लेख मनुस्मृति में मिलता है। ‘आर्ष’ का शाब्दिक अर्थ है ‘ऋषि’ और इस प्रकार के विवाह का संबंध ऋषि-मुनियों से है, जो सामान्यतः: सांसारिक बंधनों से मुक्त रहते थे। इस विवाह में वर पक्ष की ओर से कन्या पक्ष को गाय या बैल का जोड़ा दान में दिया जाता था। यह विवाह दान ऋषियों के प्रति सामाजिक और आर्थिक जिम्मेदारी को दर्शाने वाला प्रतीक भी था। तो आइए इस लेख में हम आर्ष विवाह की परंपरा, प्रक्रिया, महत्व और इसके वर्तमान संदर्भ को विस्तार से समझते हैं।
आर्ष विवाह उस विवाह को कहते हैं, जिसमें वर पक्ष द्वारा कन्या पक्ष को गाय या बैल का जोड़ा दान स्वरूप दिया जाता है। इसे गोदान विवाह भी कहा जाता है। यह विवाह ब्रह्म विवाह से प्रेरित है, लेकिन इसमें गाय और बैल के लेन-देन का महत्व होता है। यह विवाह प्राय: उन परिवारों में होता था, जो आर्थिक रूप से कमजोर होते थे। गाय और बैल का दान उनकी आजीविका और खेती के लिए सहायक होता था।
आर्ष विवाह की प्रक्रिया ब्रह्म विवाह के समान ही होती है, लेकिन इसमें मुख्य अंतर गाय और बैल के लेन-देन का होता है। इस विवाह की प्रक्रिया निम्नलिखित चरणों में संपन्न होती थी:
आर्ष विवाह का महत्व प्राचीन भारत के कृषि प्रधान समाज में अधिक था, जहां गाय और बैल आजीविका के मुख्य साधन थे। वर्तमान समय में यह विवाह प्रचलन से बाहर हो गया है, क्योंकि आर्थिक सहायता के अन्य साधन उपलब्ध हो गए हैं। आज के दौर में अगर वर पक्ष द्वारा कन्या पक्ष को किसी प्रकार की आर्थिक सहायता दी जाती है, तो उसे आर्ष विवाह की भावना से जोड़ा जा सकता है।
हिंदू धर्म में किसी भी नए कार्य की शुरुआत से पहले पूजा करने की एक प्राचीन परंपरा रही है। विशेष रूप से व्यवसाय या दुकान की शुरुआत के समय पूजा करना अत्यधिक शुभ माना जाता है।
नामकरण संस्कार हिंदू धर्म के 16 संस्कारों में से एक है, जिसमें बच्चे को उसकी पहचान दी जाती है। यह बच्चे के जीवन का पहला अनुष्ठान होता है।
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हिंदू धर्म में सोने और चांदी की धातुओं का विशेष महत्व है। सदियों से ये भारतीय घरों का अभिन्न हिस्सा रही हैं। भारतीय संस्कृति में सोना-चांदी को समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।