शारदा माता मंदिर, मैहर (Sharda Mata Mandir. Maihar)

दर्शन समय

4:00 AM - 8:00 PM

मध्यप्रदेश के सतना जिले में ऊंची पहाड़ी पर मां शारदा का एक मंदिर है, लोग इस मंदिर का मैहर के शारदा माई मंदिर के नाम से भी जानते है। कहा जाता है कि ये मंदिर देश के उन 52 शक्तिपीठों में से एक है जहां माता सती के अंग अथवा आभूषण गिरे थे। मैहर का संधि विच्छेद भी कुछ ही इसी प्रकार है, असल में मैहर को पहले माई का हार कहा जाता है जो अपभृंश होते होते मैहर हो गया। मैहर के शारदा देवी मंदिर के पीछे कई किवदंतियां और कई कहानियां प्रचलित हैं। कोई कहता है कि यहां रोज सुबह मंदिर के पट खोलते हैं तो मां की पूजा हुई मिलती है तो कोई यहां आदिशंकराचार्य द्वारा प्रथम पूजा की कहानी सुनाता है। तो आईये जानते हैं मैहर वाली शारदा माई के दरबार की पूरी कहानी…।


शक्तिपीठ: वैसे तो ये कहानी सर्व ज्ञात है लेकिन परिचय स्वरूप बता दें कि जब दक्ष यज्ञ में माता सती द्वारा अपनी आहुती दी गई तो महाकाल शिव को क्रोध आ गया और भोलेनाथ सती के शव को हाथ में लेकर तांडव करने लगे। शिव का ये त्रिकाल रूप देखकर तीनों लोक चिंता में डूब गए कि अब पृथ्वी की रक्षा कौन करेगा। ऐसे में भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र माता सती के शव के अलग अलग टुकड़े कर दिए जिससे महादेव का क्रोध शांत हो पाया। लेकिन माता शती के शरीर के अंग और उनके आभूषण जब आकाश से पृथ्वी पर आए वे अलग अलग हिस्सों में गिरे और यहां स्थापना हुई शक्तिपीठों की। मैहर का माता शारदा मंदिर भी मईया के हार गिरने के चलते ही शक्तिपीठ बना।


मंदिर का इतिहासः

मध्यप्रदेश के प्रसिद्ध विन्ध्य पर्वत श्रृंख्ला के बीच में त्रिकूट पर्वत पर हैे, ये पर्वत पिरामिडाकर है। प्राचीन धर्मग्रंथ महेंद्र  के अलावा कई पुराणों में भी इस पर्वत का जिक्र किया गया है। वहीं मां शारदा की प्रतिमा के ठीक नीचे एक शिलालेख है जिसमें कुछ पहेलियों में भी इस पर्वत का जिक्र है, हालांकि उस शिलालेख की लिखावट और भाषा आजकल पढ़ने में नहीं आती है। कहा जाता है कि त्रिकूट पर्वत में विराजीं मां शारदा का यह मंदिर 522 ईसा पूर्व में बना था हालांकि इस मंदिर की प्रसिद्धी दसवीं सदी के आसपास की मानी जाती है। मान्यता के अनुसार नृपल देव ने यहां चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को सामवेदी देवी की स्थापना की थी, जिसके बाद यहां पूजा अर्चना शुरू हो गई थी।


इस मंदिर को प्रसिद्धी दिलाने में इतिहास के दो योद्धा व देवी भक्त आल्हा-ऊदल का नाम आता है। लोक श्रुति के अनुसार आल्हा और ऊदल दोनों बहादुर योद्धा दक्षराज के बेटे थे, इन दोनों का जन्म बुंदेलखंड में महोबा के पास हुआ था। पिता की हत्या हो जाने के बाद दोनों को महोबा राज वंश के राजा परमार की सुरक्षा में रहने लगे। आल्हा ऊदल मां शारदा देवी के अनन्य उपासक थे, बुंदेलखंड के काव्य आल्हा खंड के अनुसार आल्हा और ऊदल ने ही सबसे पहले जंगल के बीच मां शारदा देवी के इस मंदिर की खोज की थी। इसके बाद आल्हा ने इस मंदिर की तलहटी में 12 साल तक तपस्या कर देवी को प्रसन्न किया था और माता ने उन्हें प्रसन्न होकर अमर होने का आशीर्वाद दिया था। आल्हा माता को माई कहकर पुकारते थे इसलिए यहां की माता को शारदा माई कहा जाने लगा। इसके अलावा 


राज परिवार का सदस्य होता है प्रधान पुजारी:

एक मान्यता ऐसी भी है कि इस मंदिर में सबसे पहले आदिशंकराचार्य द्वारा पूजा की गई थी बाद में ये मंदिर मैहर राजघराने के आधिपत्य में आया और फिर मैहर राजपरिवार के पुजारी को मंदिर के पूजा अर्चना का कार्य सौंपा गया। राज परिवार की पांचवी पीढ़ी आज पूजा अर्चना कर रही है। हालांकि मंदिर का संचालन सरकार के अधीन हो चुका है। इसके प्रशासक जिला कलेक्टर हैं। शारदा प्रबंध समित मंदिर का संचालन कर रही है और इस मंदिर में प्रधान पुजारी राज परिवार के बड़े पुत्र होते हैं। उनकी मंदिर की आय में 33 प्रतिशत की हिस्सेदारी रहती है।

 

आज भी आल्हा-ऊदल करते हैं माई की पूजा -  लोगों का कहना है कि शाम की आरती होने के बाद जब पुजारी मंदिर के द्वार बंद कर लौट जाते हैं तो मंदिर के अंदर से घंटी और पूजा करने की आवाज आती है। मंदिर के पुजारी कहते हैं कि मंदिर में सुबह की आरती और माई का सबसे पहला श्रृंगार भी आल्हा करते हैं। ब्रह्म मुहूर्त में जब पुजारियों द्वारा मंदिर के कपाट खोले जाते हैं तो यहां पूजा हो चुकी मिलती है। कहा जाता है कि मां के अनन्य भक्त आल्हा आज भी यहां माई की पहली पूजा करने के लिए आते हैं, पुजारी के अलावा इस रहस्य का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों की एक टीम भी यहां पहुंची थी, लेकिन वह किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी।


आल्हा-उदल की कहानी 

दरअसल, बुंदेलखंड के महोबा में एक परमार रियासत थी, आल्हा और ऊदल नाम के दो भाई इनके सामंत थे। ये दोनों वीर और प्रतापी योद्धा थे। कालिंजर के परमार राजा के राज्य में एक कवि थे जगनिक, इन्होंने आल्हा खंड नाम का काव्य लिखा था। इसमें दोनों भाइयों की वीरता की 52 कहानियां लिखी गईं हैं। इसके अनुसार इन्होंने आखिरी लड़ाई पृथ्वीराज चौहान के खिलाफ लड़ी थी। कहा जाता है कि इस लड़ाई में पृथ्वीराज हार गए थे, लेकिन गुरु गोरखनाथ के आदेश पर इन्होंने पृथ्वीराज को जीवनदान दे दिया। इसके बाद इन्हें वैराग्य हो गया और इन्होंने संन्यास ले लिया। मान्यता है कि मां के परम भक्त आल्हा को मां शारदा का आशीर्वाद प्राप्त था, लिहाजा पृथ्वीराज चौहान की सेना को पीछे हटना पड़ा था। मां के आदेशानुसार आल्हा ने अपनी साग (हथियार) शारदा मंदिर पर चढ़ाकर नोक टेढ़ी कर दी थी जिसे आज तक कोई सीधा नहीं कर पाया है। मंदिर परिसर में ही तमाम ऐतिहासिक महत्व के अवशेष अभी भी आल्हा व पृथ्वीराज चौहान की जंग की गवाही देते हैं।


साल में दो बार मेला:

मंदिर प्रांगण में साल में दो बार मेला लगता है। ये मेला चैत्र और शारदीय नवरात्र में लगता है, इन दिनों में मैहर में मां के भक्तों की अथाह भीड़ होती है और यहां के माहौल देखते ही बनता है।


शारदा माता मंदिर, मैहर कैसे पहुँचे?


राजधानी दिल्ली से मैहर तक की सड़क से दूरी लगभग 1000 किलोमीटर है।


हवाई मार्ग- मैहर के सबसे नजदीक खजुराहो हवाई अड्डा है जो मंदिर से लगभग 140 किमी की दूरी पर है। एक पर्यटक स्थल होने की वजह से खजुराहो में सुचारू रूप से फ्लाइट का आवागमन चलता रहता है। आप खजुराहो से लोकल ट्रांसपोर्ट या फिर पर्सनल व्हीकल बुक करके मैहर पहुंच सकते हैं। 


रेल मार्ग- मैहर जबलपुर-सतना रेल खंड से जुड़ा हुआ क्षेत्र है, मैहर रेलवे स्टेशन से शारदा माता मंदिर की दूरी लगभग 6 किमी है। इसके अलावा मैहर के पास प्रमुख रेलवे स्टेशन सतना माना जाता है, सतना बड़ा रेलवे स्टेशन है और जंक्शन पर लगभग सभी ट्रेनें रुकती हैं। सतना जंक्शन से मैहर स्थित मंदिर की दूरी 43 किमी है। 


सड़क मार्ग- सड़क मार्ग से मैहर- जबलपुर, खजुराहो, सतना और प्रयागराज से जुड़ा हुआ है। इसलिए आप बाय रोड भी आसानी से मैहर तक पहुंच सकते हैं।


मैहर की प्रसद्धि होटल:

Hotel Vrinda

MPT Surbahar, Maihar

Kasturi hotel and Restaurant

Hotel Yash Palace

Hotel Kashni


डिसक्लेमर

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