जानें देव उठनी एकादशी से पहले चातुर्मास में क्यों नहीं किए जाते कोई भी मांगलिक कार्य, क्या है धार्मिक और वैज्ञानिक मान्यता
चातुर्मास यानी चौमासा में सारे मांगलिक कार्य वर्जित होते हैं। वहीं, आषाढ़ माह की आखिरी एकादशी को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। कहा जाता है कि इस दिन जगत के पालनहार भगवान विष्णु चार महीने के लिए सृष्टि का भार महादेव को देकर योगनिद्रा में चले जाते हैं। विष्णु जी की अनुपस्थिति के कारण सभी मांगलिक कार्य जैसे शादी-विवाह, वधु विदाई आदि 16 संस्कार नहीं किए जाते। इसका एक कारण यह भी है कि इन 4 महीनों में सूर्य दक्षिण में विराजमान हो जाते हैं। जिससे सभी मांगलिक कार्य बंद कर दिए जाते हैं। आइए जानते हैं आखिर इसके पीछे क्या कारण है?
चातुर्मास को लेकर धारणा
चातुर्मास में सावन, भाद्र, आश्विन और कार्तिक का महीना पड़ता है। चातुर्मास के दौरान विवाह, मुंडन, जनेऊ संस्कार, गृह प्रवेश, नामकरण जैसे मांगलिक कार्य वर्जित रहते हैं। क्योंकि, ये सभी कार्य शुभ मुहूर्त और तिथि पर ही किए जाते हैं। लेकिन भगवान विष्णु के शयन मुद्रा में जाने के कारण कोई भी मांगलिक कार्य होते। चूंकि, सनातन धर्म में हर मांगलिक और शुभ कार्य में श्रीहरि विष्णु सहित सभी देवताओं का आह्वान अनिवार्य है।
आयुर्विज्ञान का तर्क
चातुर्मास के चार महीनों में सूर्य, चंद्रमा और प्रकृति का तेजस तत्व कम रहता है। शुभ शक्तियों के कमजोर होने पर किए गए कार्यों के परिणाम भी शुभ नहीं होते इसलिए मांगलिक कार्य निषेध होते हैं। इस दौरान हमारी पाचन शक्ति कमजोर होती है अतः वर्षा ऋतु में चातुर्मास के नियमों का पालन करके ही भोजन करना चाहिए अन्यथा रोग जकड़ सकता है।
कब खत्म होता हैं चातुर्मास
देव उठनी एकादशी के दिन ही चातुर्मास का भी समापन होता है। इस साल यह 12 नवंबर को है। इस दिन भगवान विष्णु सृष्टि का भार वापस महादेव से ले लेते हैं और मांगलिक कार्य जैसे शादी-विवाह 16 संस्कार की शुरुआत हो जाती है।
जैन धर्म में भी चौमासे का महत्व
हिंदू धर्म की तरह ही जैन धर्म में भी चातुर्मास का महत्व है। इस दौरान जैन धर्म के अनुयायी ज्ञान, दर्शन, चरित्र व तप की आराधना करते हैं। चातुर्मास जैन मुनियों के लिए शास्त्रों में नवकोटि विहार का संकेत है। भगवान महावीर ने चातुर्मास को 'विहार चरिया इसिणां पसत्था' कहकर विहारचर्या के बारे में बताया है। भगवान बुद्ध चातुर्मास के बारे में कहते हैं 'चरथ भिक्खवे चारिकां बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय'। ऐसा कहकर बौद्ध भिक्षुओं को 'चरैवेति-चरैवेति' का संदेश दिया है। वहीं, जैन मुनि चातुर्मास में तो चार महीने एक स्थान पर रहते हैं। जबकि, शेष आठ महीने एक-एक महीने कर कम से कम आठ स्थानों में प्रवास कर सकते हैं।
आयुर्वेद में भी चातुर्मास का उल्लेख
आयुर्वेद में चातुर्मास के बारे में बताया गया है इस दौरान अपने खानपान का विशेष ध्यान रखना चाहिए। सनातन धर्म में भी इन 4 महीनों में सात्विक भोजन करने के लिए कहा जाता है। इसका एक कारण यह भी है कि इन महीनों में कुछ खाने की चीजें स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती हैं। इन महीनों में मौसम में बदलाव होता है और शरीर व आसपास के तापमान में उतार-चढ़ाव होता है। इसलिए, इस समय मसालेदार या तामसिक भोजन करने से रोग का खतरा बढ़ जाता है।
इनका प्रयोग है वर्जित
चातुर्मास के समय सावन मास में साग, भाद्रपद मास में दही, आश्विन मास में दूध और कार्तिक मास में लहसुन, प्याज, दाल का प्रयोग करना चाहिए। इस समय प्रयास करना चाहिए कि नमक का सेवन ना करें। अगर नमक का त्याग नहीं कर सकते हैं तो सेंधा नमक का प्रयोग करना चाहिए और एक समय ही भोजन ग्रहण करना चाहिए।