सनातन परंपरा में धन की देवी लक्ष्मीजी के आठ अवतार बताए गए हैं। जिन्हें अष्ट लक्ष्मी कहा जाता हैं। इनमें संतान लक्ष्मी भी माता के प्रमुख अवतारों में से हैं। दीपावली पूजन में मैया के सभी स्वरूपों का ध्यान कर उनका पूजन करने का बड़ा महत्व है। ये सभी देवियां अलग-अलग तरह के फल देने वाली हैं और इनकी पूजा-अर्चना करने की विधि भी भिन्न है। तो आइए जानते हैं अष्ट लक्ष्मी में शामिल संतान लक्ष्मी की पूजा विधि और पौराणिक कथा।
छह भुजाओं वाली मां संतान लक्ष्मी हाथों में कलश, तलवार और ढाल लिए हुए हैं। नीचे का एक हाथ अभय मुद्रा में तथा दूसरे हाथ से गोद में बैठे अपने बालक को माता ने थाम रखा है जो संतान लक्ष्मी माता और देवी स्कंदमाता में समानता प्रदर्शित करता है।
संतान लक्ष्मी मां लक्ष्मी का ममतामयी रूप है। जो अपने बच्चों का हर पल लालन-पालन और रक्षा करती हैं। परिवार तथा संतान की प्रतीक संतान लक्ष्मी को लेकर मान्यता है कि यह मैया भक्तों को संतान का आशीर्वाद देती हैं। साथ ही संतान लक्ष्मी धन, वैभव, सुख और संपदा देती हैं।
संतान लक्ष्मी का मंत्र -
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं।।, 'ॐ भोग लक्ष्म्यै नम:'। और ॐ संतानलक्ष्म्यै नम:।।
देवी भागवत पुराण के छठे स्कंद के अनुसार श्री हरि विष्णु ने किसी बात से रूठ कर लक्ष्मी जी को घोड़ी होने का श्राप दे दिया था। इसके बाद लक्ष्मी जी तमसा-यमुना नदी के संगम पर जाकर निवास करने लगीं और भगवान शिव जी की आराधना करने लगी।
शिवजी ने लक्ष्मी जी की तपस्या से प्रसन्न होकर वरदान दिया कि जल्द ही श्री हरि विष्णु से उनकी भेंट होगी और पुत्र प्राप्ति भी होगी। शिव वरदान को सफल करने के लिए भगवान विष्णु अश्व का रूप धारण करके तमसा और यमुना नदी के किनारे पहुंचे घोड़ी के रूप में बैठी मां लक्ष्मी से मिले। इसके बाद विष्णु जी और लक्ष्मी जी का पुत्र हैहय उत्पन्न हुआ। विष्णु जी और लक्ष्मी जी ने बालक को जंगल में ही छोड़ दिया। उसी समय हरीवर्मा नाम का राजा भगवान श्री विष्णु के जैसा बालक पाने की इच्छा से विष्णु जी की तपस्या कर रहा था। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर विष्णु जी ने हरीवर्मा को तमसा और यमुना नदी के किनारे जाकर उसी बालक को अपना पुत्र बनाने की कहीं। राजा हरीवर्मा ने ऐसा ही किया। यही बालक आगे चलकर एकवीर नाम से प्रसिद्ध हुआ। कहा जाता है कि लक्ष्मी का यही रूप संतान लक्ष्मी के रूप में पूजा गया है।
ॐ जय जानकीनाथा, प्रभु! जय श्रीरघुनाथा।
दोउ कर जोरें बिनवौं, प्रभु! सुनियेबाता॥
ऐसी आरती राम रघुबीर की करहि मन।
हरण दुख द्वन्द, गोविन्द आनन्दघन॥
जय गणपति सद्गुण सदन कविवर बदन कृपाल।
विघ्न हरण मंगल करण जय जय गिरिजालाल॥
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निजमन मुकुरु सुधारि।
बरनउं रघुबर बिमल जसु, जो दायक फल चारि।।