आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। यह दिन केवल व्रत और उपवास का ही नहीं, बल्कि धार्मिक जागरूकता और मानवीय मूल्यों की मिसाल का भी है। इस एकादशी की महिमा स्वयं श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनाई थी। आइए जानें वह कथा, जिसमें एक राजा की दया, एक ऋषि की सलाह और भगवान विष्णु की कृपा का अद्भुत संगम है।
प्राचीन समय में राजा मान्धाता नामक एक सूर्यवंशी राजा राज्य करते थे। वे सत्यवादी, धर्मनिष्ठ और प्रजापालक शासक माने जाते थे। उनके राज्य में सुख-शांति बनी रहती थी। लेकिन एक समय ऐसा आया, जब लगातार तीन वर्षों तक बारिश नहीं हुई। खेत सूखने लगे, अन्न दुर्लभ हो गया और प्रजा भुखमरी की कगार पर पहुंच गई।
प्रजा ने राजा से विनती की कि कोई उपाय करें, वरना वे अन्य राज्यों में पलायन कर जाएंगे। राजा ने उत्तर दिया, “यदि मेरी किसी भूल से यह संकट आया है, तो मैं प्रायश्चित करने को तैयार हूं।” समाधान खोजने के लिए राजा वन की ओर चल पड़े।
वन भ्रमण के दौरान राजा महर्षि अंगिरा के आश्रम पहुंचे। अपनी व्यथा सुनाकर उन्होंने समाधान मांगा। ऋषि ने कहा, “आपके राज्य में एक शूद्र तप कर रहा है। सतयुग में यह शास्त्रविरुद्ध है। जब तक उसे रोका नहीं जाता, तब तक वर्षा नहीं होगी।”
राजा यह सुनकर असहज हो गए। उन्होंने साफ कहा, “मैं किसी निर्दोष का वध नहीं कर सकता, चाहे वह किसी भी वर्ण का क्यों न हो। मेरी आत्मा इसकी अनुमति नहीं देती।” यह सुनकर ऋषि थोड़ी देर मौन रहे, फिर बोले —
“यदि आप हत्या के मार्ग से बचना चाहते हैं, तो आषाढ़ शुक्ल पक्ष की देवशयनी एकादशी का व्रत कीजिए। यह व्रत सभी कष्टों को हरने वाला है।”
राजा वापस लौटे और विधिपूर्वक देवशयनी एकादशी का व्रत किया। आश्चर्यजनक रूप से उसी सप्ताह वर्षा हुई, खेतों में हरियाली लौटी और प्रजा फिर से सुखी जीवन जीने लगी।
यह एकादशी पद्मा एकादशी भी कहलाती है। यही वह दिन है, जब भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं और चातुर्मास का आरंभ होता है। इस काल में चार महीने तक विशेष नियमों और संयम का पालन कर व्रत, भजन और सेवा की जाती है।
जय जय जल देवता,जय ज्योति स्वरूप ।
अमर उडेरो लाल जय,झुलेलाल अनूप ॥
शीश नवा अरिहंत को, सिद्धन को, करुं प्रणाम |
उपाध्याय आचार्य का ले सुखकारी नाम ||
श्री गुरु गणनायक सिमर, शारदा का आधार।
कहूँ सुयश श्रीनाथ का, निज मति के अनुसार।
बन्दौ चरण सरोज निज जनक लली सुख धाम,
राम प्रिय किरपा करें सुमिरौं आठों धाम ॥