Kartik Maas 2025: दीवाली, छठ पूजा से लेकर तुलसी विवाह तक, जानें कार्तिक माह में पड़ने वाले प्रमुख व्रत-त्योहार
कार्तिक माह हिंदू पंचांग का अत्यंत पवित्र और शुभ महीना माना जाता है, जो भगवान विष्णु को समर्पित है। इस महीने में भगवान विष्णु योगनिद्रा से जागृत होते हैं, जिससे चातुर्मास का समापन और शुभ कार्यों की पुनः शुरुआत होती है। देवउठनी एकादशी के दिन विष्णु भगवान के जागरण का उत्सव मनाया जाता है और इसके अगले दिन तुलसी विवाह का शुभ पर्व आता है। कार्तिक मास को धर्म, आस्था और उत्सवों का प्रतीक कहा जाता है, क्योंकि इसी महीने में करवा चौथ, धनतेरस, दीपावली, गोवर्धन पूजा, छठ पूजा और तुलसी विवाह जैसे प्रमुख व्रत-त्योहार मनाए जाते हैं। ऐसे में आइये जानते हैं कार्तिक मास में पड़ने वाले प्रमुख व्रत और त्योहारों के बारे में।
कार्तिक मास 2025 व्रत-त्योहार सूची
8 अक्टूबर (बुधवार): कार्तिक मास प्रारंभ
कार्तिक मास प्रारंभ - हिंदू कैलेंडर के अनुसार, कार्तिक मास धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि इस महीने में भगवान विष्णु अपने लंबे विश्राम के बाद जागते हैं। इस मास में भगवान विष्णु और भगवान श्रीकृष्ण की उपासना करने से सभी तरह के संकटों से छुटकारा मिलता है और सुख-समृद्धि में वृद्धि होती है। कार्तिक मास में सूर्योदय से पहले पवित्र नदी में स्नान करना या घर में गंगाजल मिलाकर स्नान करना पुण्यदायी माना जाता है, जिसे कार्तिक स्नान भी कहा जाता है। इसके अलावा, इस मास में भजन-कीर्तन, दीपदान और तुलसी की पूजा-अर्चना करना भी शुभ माना जाता है। कार्तिक मास में करवा चौथ, दिवाली और भाई दूज जैसे प्रमुख पर्व भी मनाए जाते हैं।
10 अक्टूबर (शुक्रवार): करवा चौथ, वक्रतुण्ड संकष्टी चतुर्थी
- करवा चौथ - करवा चौथ का व्रत कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है, हालांकि अमांत पंचांग का पालन करने वाले क्षेत्रों जैसे गुजरात, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में इसे आश्विन माह में माना जाता है। यह अंतर केवल माह के नाम का होता है, जबकि तिथि सभी जगह एक ही रहती है। करवा चौथ और संकष्टी चतुर्थी एक ही दिन पड़ते हैं और दोनों का धार्मिक महत्व जुड़ा होता है। विवाहित महिलाएं इस दिन अपने पति की लंबी उम्र की कामना करते हुए सूर्योदय से चंद्रमा दर्शन तक बिना अन्न-जल ग्रहण किए व्रत रखती हैं। इस दिन भगवान शिव, माता पार्वती, भगवान गणेश और कार्तिकेय की पूजा की जाती है और व्रत चंद्रमा को अर्घ्य अर्पित करने के बाद ही खोला जाता है। मिट्टी के करवा (करक) का इस व्रत में विशेष महत्व होता है, जिससे चंद्रमा को जल चढ़ाया जाता है और पूजा के बाद इसे ब्राह्मण या किसी सुहागन को दान दिया जाता है। करवा चौथ को कुछ स्थानों पर करक चतुर्थी भी कहा जाता है।
- वक्रतुण्ड संकष्टी चतुर्थी - कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को वक्रतुण्ड संकष्टी व्रत मनाया जाता है, जिसमें भगवान गणेश के वक्रतुण्ड स्वरूप की पूजा की जाती है। गणेश जी के अष्टविनायक रूपों में पहला स्वरूप वक्रतुण्ड माना जाता है, जिनका अर्थ है टेढ़ी सूंड या टेढ़े मुख वाले गणेश। मुद्गल पुराण सहित कई धर्मग्रंथों में इन रूपों का विस्तृत वर्णन मिलता है। पौराणिक कथा के अनुसार, मत्सरासुर नामक दैत्य का वध करने के लिए गणेश जी ने वक्रतुण्ड रूप धारण किया था और अंततः उसे पराजित कर क्षमा याचना के पश्चात् जीवन दान दिया।
13 अक्टूबर (सोमवार): अहोई अष्टमी, राधा कुण्ड स्नान, कालाष्टमी, मासिक कृष्ण जन्माष्टमी
- अहोई अष्टमी - अहोई अष्टमी का व्रत मा ताएं अपने पुत्रों की सुख-समृद्धि और लंबी उम्र की कामना के लिए करती हैं, जिसमें वे उषाकाल (भोर) से लेकर गोधूलि बेला (सायंकाल) तक कठोर उपवास रखती हैं। इस व्रत का पारण आकाश में तारों के दर्शन के बाद किया जाता है, हालांकि कुछ महिलाएं चंद्रमा के दर्शन के उपरांत व्रत खोलती हैं, लेकिन चंद्रोदय देर से होने के कारण यह कठिन होता है। यह पर्व करवा चौथ के चार दिन बाद और दीवाली से आठ दिन पहले आता है, जो उत्तर भारत में विशेष रूप से लोकप्रिय है। अष्टमी तिथि को किए जाने के कारण इसे अहोई आठें भी कहा जाता है। करवा चौथ की तरह ही यह व्रत भी निर्जल उपवास के रूप में मनाया जाता है और संध्या समय तारे दिखाई देने पर ही इसका पारण किया जाता है।
- राधा कुण्ड स्नान - अहोई अष्टमी के दि न राधाकुण्ड में स्नान करना धार्मिक दृष्टि से अत्यंत पावन माना जाता है। विशेष रूप से उन दंपत्तियों के लिए जिन्हें गर्भधारण में कठिनाई होती है। उत्तर भारतीय पूर्णिमान्त पंचांग के अनुसार यह पर्व कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन राधाकुण्ड में डुबकी लगाने से राधा रानी का आशीर्वाद प्राप्त होता है और संतान की प्राप्ति में सफलता मिलती है। हर वर्ष हज़ारों दंपत्ति इस आस्था के साथ गोवर्धन पहुंचते हैं और मध्यरात्रि के निशिता काल में डुबकी लगाते हैं, जिसे सबसे शुभ समय माना गया है। दंपत्ति कुष्मांडा (कच्चा सफेद पेठा) को लाल वस्त्र में सजाकर जल में राधा रानी को अर्पित करते हैं, ताकि उनकी मनोकामना शीघ्र पूर्ण हो। जिनकी मन्नत पूरी हो जाती है, वे दोबारा राधाकुण्ड आकर डुबकी लगाते हैं और आभार प्रकट करते हैं।
- कालाष्टमी - कालाष्टमी, हर माह कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाई जाती है और यह भगवान कालभैरव की पूजा का प्रमुख दिन होता है। भक्त इस दिन उपवास रखते हैं और भैरव स्वरूप की आराधना करते हैं। साल की सबसे महत्वपूर्ण कालाष्टमी को कालभैरव जयंती कहा जाता है, जो उत्तर भारत के पूर्णिमांत पंचांग के अनुसार मार्गशीर्ष माह और दक्षिण भारत के अमांत पंचांग के अनुसार कार्तिक माह में आती है, हालांकि तिथि एक ही होती है। यह वही दिन माना जाता है जब भगवान शिव ने कालभैरव रूप में अवतार लिया था। इसे भैरव अष्टमी के नाम से भी जाना जाता है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, व्रत उसी दिन किया जाता है जब अष्टमी तिथि रात्रि में प्रबल हो, भले ही वह सप्तमी से शुरू हो रही हो।
- मासिक कृष्ण जन्माष्टमी - प्रत्येक महीने के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को भक्त मासिक कृष्ण जन्माष्टमी मनाते हैं, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण की विधिवत पूजा कर उनके आशीर्वाद से दुखों से मुक्ति की कामना की जाती है। इस दिन ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान आदि करके भगवान कृष्ण की पूजा प्रारंभ करनी चाहिए। पूजा में फूल, अक्षत, तुलसी दल अर्पित करने के बाद धूप-दीप जलाकर बाल गोपाल की आरती की जाती है। भगवान को माखन-मिश्री और मेवे का भोग अर्पित कर प्रसाद का वितरण करना शुभ माना जाता है।
17 अक्टूबर (शुक्रवार): रमा एकादशी
- रमा एकादशी - कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी को रमा एकादशी कहा जाता है, जिसमें श्रीहरि और माता लक्ष्मी की विधिवत पूजा करने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है और जीवन में खुशियों का आगमन होता है। इस व्रत को करने से घर में सुख-समृद्धि आती है, जीवन की बाधाएं दूर होती हैं और धन की कमी नहीं होती। भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की कृपा से तिजोरी सदैव धन से भरी रहती है और परिवार के सदस्यों पर उनकी विशेष कृपा बनी रहती है।
18 अक्टूबर (शनिवार): धनतेरस, यम दीपम, शनि प्रदोष व्रत
- धनतेरस - धनतेरस पूजा प्रदोष काल के दौरान की जानी चाहिए, जो सूर्यास्त के बाद लगभग 2 घंटे 24 मिनट तक रहता है। इस पूजा के लिए स्थिर लग्न का समय सबसे उपयुक्त माना जाता है, जिससे लक्ष्मीजी घर में ठहर जाती हैं। वृषभ लग्न को स्थिर माना गया है और यह अक्सर प्रदोष काल के साथ मिलता है। धनतेरस पूजा के लिए त्रयोदशी तिथि, प्रदोष काल और स्थिर लग्न का समय महत्वपूर्ण होता है। इस दिन यमराज के लिए घर के बाहर दीपक जलाया जाता है, जिसे यम दीपम कहा जाता है, ताकि परिवार के सदस्यों की असामयिक मृत्यु से बचा जा सके।
- यम दीपम - दीवाली के दौरान त्रयोदशी तिथि को घर के बाहर एक दीपक यमराज के लिए जलाया जाता है, जिसे यम दीपम कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस दीपदान से यमदेव प्रसन्न होते हैं और परिवार के सदस्यों की अकाल मृत्यु से रक्षा करते हैं। सन्ध्याकाल में जलाए गए इस दीपक से परिवार के सदस्यों की सुरक्षा और दीर्घायु की कामना की जाती है।
- शनि प्रदोष व्रत - प्रदोष व्रत चन्द्र मास की दोनों त्रयोदशी तिथियों पर किया जाता है, जो शुक्ल और कृष्ण पक्ष में आती हैं। यह व्रत तब किया जाता है जब त्रयोदशी तिथि प्रदोष काल (सूर्यास्त के समय) में व्याप्त होती है। शनि प्रदोष व्रत शनिवार को पड़ने पर विशेष महत्व रखता है, जो भगवान शिव और शनि देव की कृपा प्राप्त करने के लिए किया जाता है। इस व्रत से शनि ग्रह से संबंधित दोष, कालसर्प दोष और पितृ दोष आदि का निवारण होता है। शास्त्र सम्मत विधि से व्रत करने पर भगवान शिव की कृपा से सभी ग्रह दोषों से मुक्ति मिलती है और कर्म बंधन कट जाते हैं।
19 अक्टूबर (रविवार): काली चौदस, हनुमान पूजा, मासिक शिवरात्रि
- काली चौदस - काली चौदस, जिसे भूत चतुर्दशी भी कहा जाता है, मुख्य रूप से गुजरात में दीवाली उत्सव के दौरान मनाई जाती है। यह चतुर्दशी तिथि पर तब निर्धारित होती है जब मध्य रात्रि में चतुर्दशी तिथि प्रचलित होती है, जिसे महा निशिता काल कहा जाता है। इस दिन मध्यरात्रि में श्मशान जाकर अंधकार की देवी और वीर वेताल की पूजा की जाती है। काली चौदस को रूप चौदस और नरक चतुर्दशी से अलग समझना चाहिए। इसे बंगाल काली पूजा से भी भ्रमित नहीं करना चाहिए, जो एक दिन बाद अमावस्या तिथि पर मनाई जाती है। इसलिए काली चौदस की तिथि का अवलोकन करते समय सावधानी बरतनी चाहिए।
- हनुमान पूजा - हनुमान पूजा दीवाली से एक दिन पहले की जाती है, जो काली चौदस के दिन आती है। इस दिन हनुमान जी की पूजा करने से बुरी आत्माओं से सुरक्षा और शक्ति की प्राप्ति होती है। पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान राम ने हनुमान जी को वरदान दिया था कि उनसे पहले हनुमान जी का पूजन किया जाएगा। इसलिए लोग दीवाली से पहले हनुमान जी की पूजा करते हैं। अयोध्या के हनुमानगढ़ी मंदिर में इस दिन हनुमान जन्मोत्सव मनाया जाता है, जबकि उत्तर भारत में अधिकांश भक्त चैत्र पूर्णिमा पर हनुमान जन्मोत्सव मनाते हैं।
- मासिक शिवरात्रि - महाशिवरात्रि भगवान शिव और शक्ति के मिलन का विशेष पर्व है, जो हर साल फाल्गुन या माघ माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन भगवान शिव लिंग के रूप में प्रकट हुए थे और भगवान विष्णु और ब्रह्माजी ने उनकी पूजा की थी। महाशिवरात्रि भगवान शिव के जन्मदिवस के रूप में मनाई जाती है और श्रद्धालु इस दिन शिवलिंग की पूजा-अर्चना करते हैं। मासिक शिवरात्रि का व्रत करने से भगवान शिव की कृपा से कठिन कार्य भी पूरे हो सकते हैं। इस व्रत को विवाहित जीवन में सुख-शांति और विवाह की कामना के लिए भी किया जाता है। मंगलवार के दिन पड़ने वाली शिवरात्रि विशेष शुभ मानी जाती है। शिवरात्रि की पूजा मध्य रात्रि में निशिता काल के दौरान की जाती है, जो भगवान शिव के भोले-भाले स्वभाव को दर्शाती है।
20 अक्टूबर (सोमवार): लक्ष्मी पूजा, नरक चतुर्दशी, दीवाली, चोपड़ा पूजा, शारदा पूजा, काली पूजा, कमला जयंती
- लक्ष्मी पूजा - दीपावली का त्योहार पूरे देश में बड़े उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है। इस पावन अवसर पर धन की देवी मां लक्ष्मी, भगवान गणेश और धन के देवता कुबेर की पूजा की जाती है। मान्यता है कि समुद्र मंथन के समय, कार्तिक अमावस्या की तिथि पर मां लक्ष्मी का अवतरण हुआ था। इसी कारण, हर वर्ष कार्तिक अमावस्या के दिन दीपावली का पर्व मनाया जाता है। त्रेता युग में भगवान श्रीराम के 14 वर्षों के वनवास के बाद अयोध्या लौटने की खुशी में अयोध्यावासियों द्वारा दीप जलाकर इस पर्व को मनाया गया था। तभी से यह परंपरा चली आ रही है और हर वर्ष दीपावली धूमधाम से मनाई जाती है। इस दिन मां लक्ष्मी और भगवान गणेश की विशेष पूजा की जाती है, दीप जलाए जाते हैं और घरों को रोशनी से सजाया जाता है। धार्मिक विश्वास है कि मां लक्ष्मी की विधिपूर्वक पूजा करने से सुख, समृद्धि और सौभाग्य में वृद्धि होती है।
- नरक चतु्र्दशी - दीपावली का पंचदिवसीय उत्सव धनतेरस से शुरू होकर भैया दूज तक मनाया जाता है। इसमें चतुर्दशी, अमावस्या और प्रतिपदा के दिन अभ्यंग स्नान करने की परंपरा है। खासकर चतुर्दशी को, जिसे नरक चतुर्दशी, रूप चौदस या छोटी दीवाली कहा जाता है, अभ्यंग स्नान का विशेष महत्व होता है। मान्यता है कि इस दिन सूर्योदय से पूर्व चतुर्दशी तिथि में स्नान करने से नरकगति से मुक्ति मिलती है। स्नान के समय तिल के तेल का उबटन प्रयोग में लाया जाता है। कभी-कभी यह तिथि लक्ष्मी पूजा से एक दिन पहले या उसी दिन भी पड़ सकती है, जो चतुर्दशी और अमावस्या की स्थिति पर निर्भर करता है। काली चौदस और नरक चतुर्दशी अक्सर एक मानी जाती हैं, जबकि वे वास्तव में दो अलग पर्व होते हैं।
- केदार गौरी व्रत - केदार गौरी व्रत दक्षिण भारत में विशेष रूप से तमिलनाडु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण पर्व है, जिसे केदार व्रतम् भी कहा जाता है। यह व्रत दीपावली अमावस्या के दिन किया जाता है और लक्ष्मी पूजा के साथ जुड़ा होता है। कुछ परिवारों में यह व्रत 21 दिनों तक चलता है, जबकि अधिकांश लोग एक दिन का उपवास रखते हैं। भगवान शिव के भक्तों के लिए यह व्रत अत्यधिक महत्वपूर्ण है और दीवाली के अवसर पर विशेष रूप से मनाया जाता है।
- दीवाली - कार्तिक माह में दीवाली का पर्व अत्यधिक उत्साह और बेसब्री से मनाया जाता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, यह पर्व भगवान श्रीराम, माता सीता और भगवान लक्ष्मण के 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटने की खुशी में मनाया जाता है। कार्तिक माह की अमावस्या तिथि पर यह पर्व विशेष रूप से मनाया जाता है और लोग इसे बड़े उत्साह और धूमधाम से मनाते हैं।
- शारदा पूजा - दीपावली पूजा गुजरात में शारदा पूजा और चोपड़ा पूजा के नाम से भी जानी जाती है, जिसमें देवी सरस्वती, लक्ष्मी और श्री गणेश की पूजा की जाती है। देवी सरस्वती ज्ञान, बुद्धि और विद्या की देवी हैं, जबकि माता लक्ष्मी धन और समृद्धि की देवी हैं। श्री गणेश बुद्धि और विद्या के प्रदाता हैं। इस दिन तीनों की पूजा करने से स्थाई संपत्ति और वृद्धि की कामना की जाती है। शारदा पूजा विद्यार्थियों और व्यापारी वर्ग दोनों के लिए महत्वपूर्ण है, जिसमें नए चोपड़े (बही-खातों) की पूजा की जाती है और समृद्धि व सफलता के लिए प्रार्थना की जाती है। यह पूजा दीवाली हैं और इसका विशेष महत्व गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र में है।
- काली पूजा - काली पूजा एक हिंदू त्योहार है, जो देवी काली को समर्पित है। यह पर्व दीवाली उत्सव के दौरान अमावस्या तिथि पर मनाया जाता है। पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और असम में काली पूजा का विशेष महत्व है, जबकि अन्य जगहों पर लक्ष्मी पूजा की जाती है। काली पूजा के लिए मध्यरात्रि का समय उपयुक्त माना जाता है, जबकि लक्ष्मी पूजा के लिए प्रदोष का समय उपयुक्त है। इन राज्यों में लक्ष्मी पूजा का प्रमुख दिन आश्विन माह की पूर्णिमा को कोजागर पूजा या बंगाल लक्ष्मी पूजा के रूप में मनाया जाता है। काली पूजा को श्यामा पूजा भी कहा जाता है और इसका अपना विशेष महत्व और अनुष्ठान हैं।
22 अक्टूबर (बुधवार): गोवर्धन पूजा, अन्नकूट, बलि प्रतिपदा
- गोवर्धन पूजा - गोवर्धन पूजा आमतौर पर दीवाली के अगले दिन मनाई जाती है, जो भगवान कृष्ण द्वारा इन्द्र देवता को पराजित करने के उपलक्ष्य में है। यह कार्तिक माह की प्रतिपदा तिथि के दौरान मनाया जाता है और इसे अन्नकूट पूजा भी कहा जाता है। इस दिन विभिन्न अनाज, कढ़ी और सब्जियों से बने भोजन को भगवान कृष्ण को अर्पित किया जाता है। महाराष्ट्र में इसे बालि प्रतिपदा या बालि पड़वा के रूप में मनाया जाता है, जिसमें भगवान वामन की राजा बालि पर विजय का पुण्यस्मरण किया जाता है। गोवर्धन पूजा का दिन गुजराती नव वर्ष के दिन के साथ भी मिल सकता है, जो कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष में मनाया जाता है।
- अन्नकूट पूजा - गोवर्धन पूजा को अन्नकूट पूजा भी कहा जाता है, जिसमें विभिन्न प्रकार के अनाज, सब्जियों और व्यंजनों का भोग लगाया जाता है। इस दिन गेहूं, चावल, बेसन की कढ़ी और पत्ते वाली सब्जियों से बने भोजन को पकाया जाता है और भगवान कृष्ण को अर्पित किया जाता है। यह पूजा भगवान कृष्ण की पूजा के साथ-साथ प्रकृति और अन्न की महत्ता को भी दर्शाती है।
- बलि प्रतिपदा - बलि पूजा, जिसे बलि प्रतिपदा भी कहा जाता है, कार्तिक प्रतिपदा के दिन मनाई जाती है, जो दीवाली के अगले दिन होती है। यह पूजा दानव राजा बलि को समर्पित है, जिन्हें भगवान विष्णु ने पाताल लोक में भेज दिया था लेकिन उन्हें तीन दिन के लिए पृथ्वी पर आने की अनुमति दी थी। ऐसी मान्यता है कि राजा बलि इस दौरान अपने भक्तों को आशीर्वाद देते हैं। बलि पूजा में राजा बलि और उनकी पत्नी विन्ध्यावली की छवि को पाँच रंगों से सजाकर पूजा की जाती है। दक्षिण भारत में राजा बलि की पूजा ओणम उत्सव के दौरान भी की जाती है, जिसकी अवधारणा उत्तर भारत में बलि पूजा के समान है।
23 अक्टूबर (गुरूवार): भैया दूज, यम द्वितीया, चित्रगुप्त पूजा
- भैया दूज - भाई दूज का पर्व कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाता है, जिसमें बहनें अपने भाइयों को टीका लगाकर उनके दीर्घायु और सुख-समृद्धि की कामना करती हैं। इस दिन बहनें प्रातःकाल स्नान कर व्रत का संकल्प लेती हैं और भाई को आमंत्रित कर थाली सजाती हैं। भाई का तिलक करके कलावा बांधती हैं और आरती उतारती हैं। भाई अपनी सामर्थ्य के अनुसार बहन को उपहार देते हैं। भाई दूज को यम द्वितीया भी कहा जाता है, क्योंकि इस दिन यमुना में स्नान का विशेष महत्व है, जिससे पाप नष्ट होते हैं और आयु व धन में वृद्धि होती है। इस व्रत से बहनों को सौभाग्य और समृद्धि मिलती है। साथ ही भाई यमलोक के भय से मुक्त रहते हैं। यह पर्व भाई-बहन के प्रेम और स्नेह का प्रतीक है।
- यम द्वितीया - यम द्वितीया का पर्व कार्तिक माह की द्वितीया तिथि पर मनाया जाता है, जो आमतौर पर दीवाली के दो दिन बाद आता है। इस दिन मृत्यु के देवता यमराज की पूजा-अर्चना की जाती है, जिसमें भगवान चित्रगुप्त और यमदूतों की भी पूजा शामिल है। यम द्वितीया पूजन के लिए अपराह्न काल सबसे उपयुक्त समय है और पूजन से पहले प्रातःकाल यमुना स्नान करने का सुझाव दिया जाता है। इस दिन को भाई दूज के रूप में भी मनाया जाता है, जिसमें बहनें अपने भाइयों को भोजन कराती हैं और उन्हें दीर्घायु का आशीर्वाद मिलता है। शास्त्रों के अनुसार, इस दिन बहनों के घर भोजन करने से भाइयों को दीर्घायु प्राप्त होती है। साथ ही बहनों को अखण्ड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद मिलता है।
- चित्रगुप्त पूजा - चित्रगुप्त पूजा कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि को मनाई जाती है, जो मुख्यतः कायस्थ समाज द्वारा मनाया जाने वाला त्यौहार है। इस दिन भगवान चित्रगुप्त की पूजा-अर्चना की जाती है, जो यमराज के सहायक हैं और जीवों के कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं। चित्रगुप्त पूजा में कलम-दवात और बही-खातों की भी पूजा की जाती है, जिसे मस्याधार पूजा भी कहा जाता है। भगवान चित्रगुप्त को कायस्थ समाज के अधिष्ठाता और कुलदेवता के रूप में पूजा जाता है। उनके प्रमुख मंदिर मध्य प्रदेश के जबलपुर और खजुराहो में हैं। साथ ही उनकी पूजा भारत के अलावा थाईलैंड में भी की जाती है।
25 अक्टूबर (शनिवार): विनायक चतुर्थी
- विनायक चतुर्थी - विनायक चतुर्थी हर महीने में दो बार आती है - शुक्ल पक्ष में विनायक चतुर्थी और कृष्ण पक्ष में संकष्टी चतुर्थी। भाद्रपद महीने में आने वाली विनायक चतुर्थी को गणेश चतुर्थी के रूप में मनाया जाता है, जो भगवान गणेश के जन्मदिन के रूप में प्रसिद्ध है। विनायक चतुर्थी को वरद विनायक को भी कहा जाता है, जिसमें भगवान गणेश से आशीर्वाद और मनोकामना की पूर्ति की कामना की जाती है। विनायक चतुर्थी का व्रत करने से भगवान गणेश ज्ञान और धैर्य का आशीर्वाद देते हैं, जो जीवन में उन्नति और मनवांछित फल प्राप्त करने में मदद करते हैं। इस दिन गणेश पूजा दोपहर के मध्याह्न काल में की जाती है, जो विनायक चतुर्थी के शुभ मुहूर्त के साथ निर्धारित होती है।
26 अक्टूबर (रविवार): लाभ पंचमी
- लाभ पंचमी - लाभ पंचमी को गुजरात में सौभाग्य पंचमी, ज्ञान पंचमी और लाभ पंचम भी कहा जाता है, जो लाभ और सौभाग्य से जुड़ा हुआ है। इस दिन को अत्यधिक शुभ माना जाता है और ये दिन दीवाली उत्सव का समापन होता है। लाभ पंचमी पर पूजा करने से जीवन में लाभ, व्यवसाय में अनुकूलता और परिवार में सौभाग्य की वृद्धि होती है। गुजरात में अधिकांश व्यवसायी इस दिन अपनी व्यावसायिक गतिविधियां पुनः आरंभ करते हैं और इसे गुजराती नववर्ष का पहला कार्य दिवस मानते हैं। इस अवसर पर नए खाता-बही का उद्घाटन किया जाता है, जिसमें बायीं ओर 'शुभ' और दायीं ओर 'लाभ' लिखकर साथ ही केंद्र में स्वस्तिक बनाकर शुभारंभ किया जाता है।
27 अक्टूबर (सोमवार): छठ पूजा, स्कंद षष्ठी
- छठ पूजा - छठ पूजा भगवान सूर्य की आराधना का पर्व है, जो ऊर्जा और जीवन-शक्ति के देवता हैं। इस पावन अवसर पर भगवान सूर्य की पूजा-अर्चना करने से समृद्धि, प्रगति और कल्याण की प्राप्ति होती है। छठ पूजा को सूर्य षष्ठी, छठ, छठी, डाला पूजा और डाला छठ के नाम से भी जाना जाता है, जो इस पर्व की विविधता और महत्व को दर्शाता है। इस पूजा के माध्यम से भक्त भगवान सूर्य से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं और अपने जीवन में सुख-शांति और समृद्धि की कामना करते हैं।
- स्कंद षष्ठी - भगवान स्कन्द तमिल हिंदुओं के एक प्रमुख देवता हैं, जो भगवान शिव-पार्वती के पुत्र और भगवान गणेश के छोटे भाई हैं। उन्हें मुरुगन, कार्तिकेय और सुब्रह्मण्य के नाम से भी जाना जाता है। भगवान स्कन्द को शक्ति और साहस का प्रतीक माना जाता है। उनकी पूजा विशेष रूप से दक्षिण भारत में व्यापक रूप से की जाती है। उनकी भक्ति और आराधना से भक्तों को आध्यात्मिक और शारीरिक बल की प्राप्ति होती है।
30 अक्टूबर (गुरूवार): गोपाष्टमी, मासिक दुर्गाष्टमी
- गोपाष्टमी - गोपाष्टमी का त्योहार कार्तिक शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है, जो मथुरा, वृन्दावन और ब्रज क्षेत्र में विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इस दिन भगवान कृष्ण ने इन्द्र के प्रकोप से ब्रजवासियों को बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी ऊँगली पर उठाया था। गोपाष्टमी के दिन इन्द्र देव ने अपनी पराजय स्वीकार की थी। इस त्योहार पर गायों और उनके बछड़ों को सजाकर उनकी पूजा की जाती है, जो गायों के प्रति सम्मान और आभार का प्रतीक है। महाराष्ट्र में इसे गोवत्स द्वादशी के रूप में मनाया जाता है। गोपाष्टमी का पर्व गायों के महत्व और उनकी पूजा की परंपरा को दर्शाता है।
- मासिक दुर्गाष्टमी - हर महीने के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि पर दुर्गाष्टमी का उपवास किया जाता है, जिसमें श्रद्धालु दुर्गा माता की पूजा करते हैं और पूरे दिन का व्रत रखते हैं। मुख्य दुर्गाष्टमी, जिसे महाष्टमी कहते हैं, आश्विन माह के शारदीय नवरात्रि उत्सव के दौरान पड़ती है। इस दिन को दुर्गा अष्टमी भी कहा जाता है और मासिक दुर्गाष्टमी को मास दुर्गाष्टमी के नाम से भी जाना जाता है। इस व्रत और पूजा से भक्त दुर्गा माता की कृपा प्राप्त करते हैं और अपने जीवन में सुख-शांति और शक्ति की कामना करते हैं।
31 अक्टूबर (शुक्रवार): अक्षय नवमी, जगद्धात्री पूजा
- अक्षय नवमी - अक्षय नवमी कार्तिक शुक्ल नवमी को मनाया जाता है, जो देवउठनी एकादशी से दो दिन पहले आता है। ऐसा माना जाता है कि इसी दिन सत्ययुग का आरंभ हुआ था, इसलिए इसे सत्य युगादि भी कहा जाता है। इस दिन दान-पुण्य के कार्यों का अत्यधिक महत्व है, क्योंकि इसका पुण्यफल कभी कम नहीं होता और अगले जन्मों में भी प्राप्त होता है। अक्षय नवमी का महत्व अक्षय तृतीया के समान है, जो त्रेतायुग का आरंभ है। इस दिन मथुरा-वृन्दावन की परिक्रमा करना विशेष रूप से पुण्यदायी माना जाता है। अक्षय नवमी को आंवला नवमी भी कहा जाता है, जिसमें आंवले के वृक्ष की पूजा की जाती है। पश्चिम बंगाल में इसे जगद्धात्री पूजा के रूप में मनाया जाता है, जिसमें सत्ता की देवी जगद्धात्री की पूजा की जाती है।
1 नवंबर (शनिवार): कंस वध, देवुत्थान एकादशी
- कंस वध - भगवान श्रीकृष्ण ने कंस वध के दिन अत्याचारी कंस का अंत कर अपने नाना राजा उग्रसेन को पुनः मथुरा के सिंहासन पर बैठाया। यह दिन ब्रज क्षेत्र, खासकर मथुरा में “कंस वध” उत्सव के रूप में मनाया जाता है, जो मुख्यतः चतुर्वेदी (चौबे) समाज का प्रमुख त्यौहार है। विदेशों और देश के अन्य शहरों में बसे चतुर्वेदी परिवार इस मौके पर मथुरा लौटते हैं, जिससे यह पर्व पूरे समाज को एकजुट करता है। कंस वध कार्तिक शुक्ल दशमी को मनाया जाता है, जो आमतौर पर दीपावली के दसवें दिन आता है। इसके अगले दिन देवउठनी एकादशी पर ब्रज क्षेत्र के लोग मथुरा, वृंदावन और गरुड़ गोविंद की तीन वन परिक्रमा करते हैं। माना जाता है कि श्रीकृष्ण ने कंस वध के पाप से मुक्ति पाने के लिए यह परिक्रमा की थी और तभी से यह परंपरा चली आ रही है।
- देवुत्थान एकादशी - पंचांग के अनुसार, कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को देवउठनी एकादशी का व्रत किया जाता है। इस दिन भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की विधिवत पूजा-अर्चना की जाती है तथा विशेष वस्तुओं का दान करना शुभ माना जाता है। ऐसा करने से जीवन में सौभाग्य, धनलाभ और मंगल फल की प्राप्ति होती है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, इसी दिन भगवान विष्णु योग निद्रा से जागृत होते हैं, इसलिए इसे “देवउठनी एकादशी” कहा जाता है। इस एकादशी के अगले दिन तुलसी विवाह का आयोजन किया जाता है और इसी के साथ विवाह सहित सभी शुभ और मांगलिक कार्यों की पुनः शुरुआत होती है।
2 नवंबर (रविवार): तुलसी विवाह
- तुलसी विवाह - तुलसी विवाह हिन्दू परंपरा का एक पवित्र पर्व है, जिसमें देवी तुलसी का विवाह भगवान विष्णु या उनके अवतार श्रीकृष्ण से किया जाता है। पद्मपुराण में इसका वर्णन कार्तिक शुक्ल नवमी को मिलता है, जबकि अन्य ग्रंथों में प्रबोधिनी एकादशी से पूर्णिमा तक का समय शुभ माना गया है। इस दिन तुलसी को देवी वृंदा और शालग्राम को भगवान विष्णु का रूप मानकर विवाह संपन्न किया जाता है। वृंदावन, मथुरा और ब्रज क्षेत्र में यह पर्व बड़े हर्ष और श्रद्धा से मनाया जाता है। घरों और मंदिरों में पारंपरिक विवाह की तरह हल्दी, मेहंदी, फेरे और बारात जैसी रस्में निभाई जाती हैं। भक्त पूरे दिन व्रत रखते हैं और सायंकाल भगवान विष्णु व देवी तुलसी का विवाह धूमधाम से संपन्न करते हैं। वृंदावन के प्राचीन मंदिरों में बिना तुलसी के ठाकुर जी को भोग नहीं लगाया जाता, इसलिए यहाँ तुलसी विवाह विशेष भव्यता से मनाया जाता है।
3 नवंबर (सोमवार): सोम प्रदोष व्रत
- सोम प्रदोष व्रत - जब प्रदोष व्रत सोमवार को पड़ता है, तो इसे सोम प्रदोष कहा जाता है। भगवान शिव को ये अत्यंत प्रिय है। यह व्रत मानसिक शांति, वैवाहिक सुख और पारिवारिक समृद्धि के लिए शुभ माना जाता है। ज्योतिष के अनुसार, यह व्रत चंद्र से जुड़े अशुभ योगों को दूर करने में सहायक होता है। विधिवत रूप से सोम प्रदोष व्रत करने पर भगवान शिव की कृपा से मनोवांछित फल प्राप्त होता है और दांपत्य जीवन में प्रेम व सामंजस्य बढ़ता है। इसे मानसिक तनाव और चिंताओं के निवारण के लिए भी अत्यंत लाभकारी माना गया है।
5 नवंबर (बुधवार): देव दीपावली
- देव दीपावली- देव दीपावली वाराणसी में मनाया जाने वाला एक प्रमुख उत्सव है, जो भगवान शिव की त्रिपुरासुर पर विजय का प्रतीक है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाए जाने वाले इस पर्व पर भक्त गंगा में पवित्र स्नान करते हैं और सायंकाल मिट्टी के दीप जलाते हैं। जैसे ही शाम होती है, गंगा के घाट और बनारस के मंदिर लाखों दीयों से जगमगा उठते हैं, जो एक अद्भुत दृश्य प्रस्तुत करता है।
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