उत्तर प्रदेश के मथुरा में नरी सेमरी देवी मंदिर अपनी अनोखी पूजा परंपरा के लिए ही जाना जाता है। करीब 750 साल पुराने इस मंदिर में देवी दुर्गा की पूजा ढोल-नगाड़ों के बजाय लाठी-डंडों से की जाती है। इस मंदिर में समाज के दो पक्षों के बीच हुए ऐतिहासिक संघर्ष की कहानी है। धार्मिक मान्यता के अनुसार इस मंदिर की देवी की प्रतिमा राम नवमी के दिन सीधी हो जाती है जिसके बाद इस अनोखे अंदाज में पूजा की जाती है। आइए जानते हैं इस विशेष मंदिर और इसकी अनोखी परंपरा के बारे में और भी बहुत कुछ विस्तार से।
नरी सेमरी देवी मंदिर की यह अनोखी परंपरा सदियों से चली आ रही है और यह मंदिर देवी दुर्गा की भक्ति और शक्ति का प्रतीक माना जाता है। यहां की पूजा का यह विशेष अंदाज इसे देशभर के अन्य मंदिरों से अलग बनाता है और यह मंदिर भक्तों के लिए आस्था का एक प्रमुख केंद्र है। बता दें कि लगभग 750 साल पुराने इस मंदिर की स्थापना छाता गांव में की गई थी जो मथुरा से करीब 30 किलोमीटर दूर है। नरी सेमरी देवी मंदिर में देवी दुर्गा की पूजा ढोल-नगाड़ों के बजाय लाठी-डंडों से की जाती है जो इसे अन्य मंदिरों से अलग बना देता है। हर साल रामनवमी के शुभ अवसर पर यहां ठाकुर समाज के लोग लाठी-डंडों के साथ देवी की आरती और पूजा करते हैं। मान्यता के अनुसार लाठी-डंडों से पूजा करने से देवी प्रसन्न होती हैं और अपने भक्तों की सभी इच्छाएं पूर्ण करती हैं।
जानकारों की मानें तो मंदिर के इतिहास की शुरुआत ठाकुर समुदाय के दो पक्षों यदुवंशी ठाकुर और सिसोदिया समाज के बीच हुए एक विवाद से होती है। देवी मां की प्रतिमा के पूजा को लेकर दोनों पक्षों में संघर्ष हुआ था जो लाठी-डंडों तक पहुंच गया। इस संघर्ष में यदुवंशी ठाकुरों की जीत हुई और तभी से इस मंदिर में लाठी-डंडों से देवी की पूजा की परंपरा शुरू हो गई। पूजा के दौरान भक्त लाठियों से मंदिर की दीवारों, चौखट और घंटियों पर प्रहार करते हैं जिससे एक विशेष ध्वनि उत्पन्न होती है, जिसे पूजा का अभिन्न हिस्सा माना जाता है।
राम नवमी के दिन इस मंदिर की पूजा का विशेष महत्व है, क्योंकि धार्मिक मान्यता के अनुसार नरी सेमरी मंदिर में स्थापित देवी की प्रतिमा साल भर टेढ़ी मुद्रा में रहती है। राम नवमी के दिन यह प्रतिमा सीधी हो जाती है। इसी दिन देवी की आरती और पूजा लाठियों से की जाती है। जिसे देखने के लिए दूर-दूर से भक्त यहां आते हैं। नवरात्रि और रामनवमी के दौरान मंदिर में विशेष मेले का आयोजन किया जाता है जहां सैकड़ों भक्त माता के दर्शन और इस अनोखी पूजा में शामिल होने के लिए जुटते हैं।
स्थानीय लोगों का मानना है कि यह पूजा केवल देवी मां के प्रति श्रद्धा और भक्ति का प्रतीक है न कि किसी संघर्ष या हिंसा का। हर साल नवरात्रि के मौके पर इस मंदिर में विशेष मेले का आयोजन होता है। जहां, भक्त देवी के दर्शन और इस अनोखी पूजा में शामिल होते हैं। ठाकुर समाज के दोनों पक्ष सूर्यवंशी और चंद्रवंशी, इस दिन का साल भर इंतजार करते हैं और पूरी श्रद्धा के साथ इस परंपरा को निभाते हैं।
मई का महीना प्रगति और समर्पण का प्रतीक है, जब लोग अपने अप्रैल में बनाए गए लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। इस महीने में लोग अपने करियर में नए अवसरों का लाभ उठाने, अपने सपनों को साकार करने और जीवन के नए अध्यायों में सफलता प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहते हैं।
मई का महीना गर्मी की शुरुआत का प्रतीक है, जब प्रकृति अपने नए रूप में खिल उठती है। यह वह समय होता है जब जीवन में नए अवसर आते हैं और भविष्य की योजनाएं बनाई जाती हैं।
मई का महीना प्रकृति के सौंदर्य को और भी बढ़ाने का समय है। इस समय फूल खिलते हैं और वातावरण में एक नई ताजगी आती है। यह समय नई शुरुआतों के लिए भी उत्तम है, जैसे कि बच्चे के मुंडन संस्कार। यह अनुष्ठान बच्चे के जन्म के एक साल या तीन साल बाद किया जाता है, जिसमें उसके सिर के बालों को पारंपरिक तरीके से काटा जाता है।
हिंदू धर्म में 16 संस्कारों का विशेष महत्व है और उनमें नौवां संस्कार है कर्णवेध। यह संस्कार बच्चे के कान छिदवाने का समय होता है जो सामान्यतः 1 से 5 वर्ष की उम्र में किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सही समय और शुभ मुहूर्त में यह संस्कार करने से बच्चे के जीवन में सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।