भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार क्यों लिया था

 Narsingh Avatar Katha: भगवान विष्णु ने क्यों लिया था नरसिंह अवतार, जानिए पौराणिक कथा


हिंदू धर्म में भगवान विष्णु के दश अवतारों का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है। इन दस अवतारों में चौथा अवतार नरसिंह अवतार है, जो भक्त और भगवान के बीच की अटूट आस्था और प्रेम का प्रतीक है। नरसिंह जयंती उसी दिन मनाई जाती है, जब भगवान विष्णु ने आधा मनुष्य और आधा सिंह का रूप लेकर अपने परमभक्त प्रह्लाद की रक्षा की और उसके पिता हिरण्यकश्यप का अंत किया था। यह अवतार धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश का दिव्य उदाहरण माना जाता है।


हिरण्यकश्यप को मिला भगवान ब्रह्मा का वरदान 

पौराणिक कथा के अनुसार हिरण्यकश्यप एक असुर था, जो अपने भाई हिरण्याक्ष की भगवान विष्णु के हाथों मृत्यु से अत्यंत क्रोधित था। उसने बदला लेने के लिए कठोर तपस्या की और ब्रह्माजी को प्रसन्न करके एक विशेष वरदान प्राप्त किया। इस वरदान में उसने मांगा कि न वह किसी मनुष्य या पशु द्वारा मारा जाए, न दिन या रात, न धरती या आकाश पर, न किसी हथियार से और न ही भीतर या बाहर किसी स्थान पर। 

इस वरदान के कारण हिरण्यकश्यप अहंकारी और अत्याचारी हो गया। उसने स्वयं को ईश्वर घोषित कर दिया और अपनी प्रजा को भी यही आदेश दिया कि केवल उसकी पूजा की जाए।


भक्त प्रह्लाद ने की थी पिता के आज्ञा की अवहेलना 

हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद बचपन से ही भगवान विष्णु का परम भक्त था। उसने अपने पिता की आज्ञा को न मान कर केवल श्रीहरि का भजन किया। यह देख हिरण्यकश्यप क्रोधित हो उठा और उसने प्रह्लाद को कई बार मृत्यु दंड देने का प्रयास किया, परंतु हर बार भगवान विष्णु ने प्रह्लाद की रक्षा की। 


भगवान नृसिंह ने हिरण्यकश्यप को जांघ पर लिटाकर नाखूनों से किया था वध

पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद से पूछा था कि तेरा भगवान कहां है तब जवाब में भक्त प्रह्लाद ने कहा था की वह सर्वत्र है। यह सुनकर हिरण्यकश्यप ने एक खंभे की ओर इशारा करते हुए पूछा, ‘क्या वह इसमें भी है’ और प्रह्लाद ने हाँ कहा। तभी उस खंभे को फाड़कर भगवान विष्णु नरसिंह रूप में प्रकट हुए। यह रूप न पूर्ण रूप से मनुष्य, न पशु। यह अर्ध-सिंह, अर्ध-मानव का स्वरूप था।

भगवान नरसिंह ने हिरण्यकश्यप को संध्या के समय, घर की चौखट पर, अपनी जांघ पर लिटाकर, और नाखूनों से मार डाला। इस प्रकार भगवान ब्रह्मा का वरदान भी रहा और अधर्म का अंत भी हुआ।


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