गुरु पूर्णिमा, जिसे व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है, हिंदू धर्म में एक अत्यंत पावन पर्व के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व महर्षि वेदव्यास के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में मनाया जाता है, जो भारतीय दर्शन, ज्ञान और अध्यात्म के क्षेत्र में अमूल्य योगदान देने वाले महान ऋषि थे। वेदव्यास को हिंदू धर्म में प्रथम गुरु माना जाता है, जिन्होंने न केवल वेदों का विभाजन किया, बल्कि महाभारत, 18 पुराणों और ब्रह्मसूत्र जैसे अमर ग्रंथों की भी रचना की।
गुरु पूर्णिमा की कथा महर्षि वेदव्यास के जीवन से जुड़ी है। गुरु पूर्णिमा के दिन महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था, इसलिए इसे व्यास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। उनके पिता ऋषि पराशर और माता सत्यवती थीं। जन्म के समय से ही वेदव्यास अत्यंत प्रतिभाशाली और आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे। उन्हें बचपन से ही ज्ञान की ओर विशेष रुचि थी और उन्होंने अपनी माता से प्रभु दर्शन की इच्छा व्यक्त की। जब उन्होंने वन में तपस्या करने की अनुमति मांगी, तो माता सत्यवती ने उन्हें अनुमति तो दी, पर यह भी कहा कि जब घर की याद आए, तो वापस लौट आना।
वेदव्यास वन में चले गए और कठोर तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। उन्होंने संस्कृत भाषा में गहराई प्राप्त की और फिर वेदों का अध्ययन और विस्तार प्रारंभ किया। उन्होंने वेदों को चार भागों में विभाजित किया जिससे आम जन भी ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को समझ सकें।
इसके साथ ही उन्होंने महाभारत की रचना की, जिसे पंचम वेद कहा जाता है, और 18 पुराणों और ब्रह्मसूत्र की भी रचना की। वेदव्यास को उनके ज्ञान, लेखन और सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अमरत्व का वरदान प्राप्त हुआ।
गुरु पूर्णिमा केवल एक पर्व नहीं, बल्कि गुरु के महत्व को रेखांकित करने वाला दिन है। भारतीय संस्कृति में गुरु को ईश्वर से भी ऊपर स्थान दिया गया है। इस दिन शिष्य अपने गुरु के चरणों में श्रद्धा, सम्मान और समर्पण अर्पित करते हैं। गुरु ही वह दीपक हैं, जो अज्ञानता के अंधकार को हटाकर ज्ञान के प्रकाश से मार्गदर्शन करते हैं।
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