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हिंदू धर्मग्रंथों में विवाह को धर्म और सामाजिक कर्तव्य का अटूट हिस्सा माना गया है। मनुस्मृति में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है। जिनमें देव विवाह को एक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। यह विवाह मुख्यतः धार्मिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता था। देव विवाह में पिता अपनी कन्या को यज्ञ कराने वाले पुरोहित या विद्वान को समर्पित करता है। इसे प्राचीन काल में एक आदर्श विवाह का स्वरूप माना गया था। हालांकि, आधुनिक युग में यह विवाह अप्रचलित हो गया है। इसके बावजूद, इसका ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व आज भी प्रासंगिक है। आइए इस लेख में देव विवाह के बारे में विस्तार से जानते हैं।
देव विवाह एक ऐसा विवाह है जिसमें कन्या के पिता किसी धार्मिक कार्य, यज्ञ या सेवा के लिए अपनी कन्या का विवाह एक योग्य पुरोहित या विद्वान से करते हैं। यह विवाह तब होता है जब कोई व्यक्ति यज्ञ या धार्मिक कार्य करवाता है, और इसके बदले में पुरोहित को सम्मान स्वरूप कन्या का विवाह प्रस्तावित करता है। इस विवाह में यह सुनिश्चित किया जाता है कि कन्या की सहमति हो। देव विवाह को मध्यम श्रेणी का विवाह माना गया है। जो ब्रह्म विवाह से नीचे लेकिन असुर या राक्षस विवाह से ऊपर है।
देव विवाह की प्रक्रिया में धार्मिक और पारंपरिक नियमों का पालन किया जाता था।
प्राचीन समय में देव विवाह मुख्यत यज्ञ और धार्मिक कार्यों के लिए प्रचलित था। इसे आदर्श और सरल विवाह का स्वरूप माना जाता था।
यह विवाह समाज में पुरोहित वर्ग की प्रतिष्ठा और धर्म के प्रति समर्पण को दर्शाता था। जबकि, आधुनिक समय में देव विवाह अब अप्रचलित हो गया है। आज के समाज में इस विवाह का धार्मिक महत्व तो है, लेकिन व्यावहारिक रूप से इसे अपनाया नहीं जाता। आधुनिक विवाह व्यवस्था में माता-पिता और वर-वधू की सहमति के साथ विवाह संपन्न किए जाते हैं।
देव विवाह की तुलना में ब्रह्म विवाह अधिक पवित्र और आदर्श माना जाता है। ब्रह्म विवाह में वर-वधू दोनों की शिक्षा और ब्रह्मचर्य पर जोर दिया जाता है। जबकि, देव विवाह असुर और राक्षस विवाह से कहीं अधिक श्रेष्ठ और नैतिक था। इसमें ना तो धन का लेन-देन होता था और ना ही किसी प्रकार का शोषण।
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