Thrissur Pooram 2025: बेहद अनोखा और प्राचीन है केरल का त्रिशूर पूरम, सजे-धजे हाथियों की होती है शोभा यात्रा
Thrissur Pooram: भारत एक ऐसा देश है जहां हर राज्य की अपनी अलग परंपरा और संस्कृति है। केरल का त्रिशूर पूरम ऐसा ही एक रंगीन और भव्य उत्सव है, जो न सिर्फ स्थानीय लोगों के लिए बल्कि देश-विदेश के पर्यटकों के लिए भी एक खास आकर्षण होता है। यह त्योहार परंपरा, आस्था और सांस्कृतिक धरोहर का अद्भुत संगम है। ऐसे में आइए आज हम आपको बताते हैं इस उत्सव से जुड़ी कुछ खास बातें…
200 साल पुराना है ये पर्व
त्रिशूर पूरम कोई नया पर्व नहीं है, बल्कि इसका इतिहास लगभग 200 साल से भी ज्यादा पुराना है। इसकी शुरुआत 1790 से 1805 के बीच कोचीन साम्राज्य के शासक शक्तिन थंपुरन ने की थी। कहते हैं कि एक बार जब भारी बारिश की वजह से कुछ मंदिरों को 'अराट्टुपुझा पूरम' में हिस्सा लेने से रोका गया, तब उन मंदिरों की शिकायत पर राजा ने एक नया त्योहार शुरू करवाया जिसे आज हम त्रिशूर पूरम के नाम से जानते हैं।
अप्रैल-मई में मनाया जाता है त्योहार
यह पर्व मलयालम कैलेंडर के मेड़म महीने में आता है, जो आमतौर पर अप्रैल और मई के बीच होता है। यह त्योहार लगातार आठ दिनों तक चलता है, जिसमें हर दिन की अपनी खास रस्म और परंपरा होती है।
सजे-धजे हाथियों की होती है शोभा यात्रा
त्रिशूर पूरम की सबसे बड़ी खासियत है इसकी भव्य शोभा यात्रा जिसमें 50 से ज्यादा हाथियों को पारंपरिक आभूषणों और रंग-बिरंगी छतरियों से सजाया जाता है। ये हाथी त्रिशूर शहर की सड़कों पर एक लंबी यात्रा करते हैं जो देखने वालों के लिए किसी जादुई अनुभव से कम नहीं होता।
रंगीन छतरियां और परंपरागत संगीत
इस यात्रा के दौरान जो छतरियां हाथियों पर लगाई जाती हैं, वे बेहद खूबसूरत और रंग-बिरंगी होती हैं। साथ ही, पारंपरिक संगीत वाद्य यंत्रों जैसे चेंडा और मेलम की धुनें माहौल को और भी जीवंत बना देती हैं। ये धुनें न केवल कानों को सुकून देती हैं बल्कि दिल को भी रोमांचित कर देती हैं।
आतिशबाजी है एक और खास आकर्षण
त्रिशूर पूरम का सबसे रोमांचक हिस्सा है रात को होने वाली भव्य आतिशबाजी, जिसे स्थानीय भाषा में वेदिकेट्टू कहा जाता है। यह आतिशबाजी इतनी शानदार होती है कि दूर-दूर से लोग सिर्फ इसे देखने के लिए आते हैं।
धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
इस त्योहार का धार्मिक महत्व भी बहुत बड़ा है। आसपास के सभी मंदिरों में विशेष पूजा-अर्चना होती है और श्रद्धालु बड़ी संख्या में इसमें भाग लेते हैं। यह पर्व केरल की संस्कृति, आस्था और एकता का प्रतीक है।
सखी री बांके बिहारी से
हमारी लड़ गयी अंखियाँ ।
सखी री दो कुंवर सुंदर,
मनोहर आज आये है,
सालासर धाम निराला,
की बोलो जय बालाजी,
सालासर वाले तुम्हें,
आज हम मनाएंगे,