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माता मातंगी

माता मातंगी को क्यों लगाया जाता है जूठन का भोग, जानें मैय्या से जुड़ी रोचक कथा 


भगवान शिव का एक नाम मतंग भी है। शिव की शक्ति से उत्पन्न दस महाविद्याओं में से एक देवी मातंगी का नाम शिव के मतंग नाम से ही पड़ा है। हरे वर्ण और चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करने वाली मातंगी वाग्देवी या सरस्वती की स्वरूपा हैं। भक्त वत्सल के नवरात्रि विशेषांक श्रृंखला में दस महाविद्याओं के बारे में जानकारी देते हुए इस लेख में आज हम जानेंगे देवी मातंगी के बारे में…


मां मातंगी का स्वरूप 


मैया की चार भुजाएं हैं और इनके कपाल पर तोता बैठा है। हाथों में वीणा, खड्ग वेद धारण करने वाली मां मातंगी को तांत्रिकों की सरस्वती भी कहा गया हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, मां के तीन नेत्र हैं। माता रत्नों से जड़े सिंहासन पर बैठी हैं। देवी मातंगी का तोता वाणी और वाचन का प्रतीक है। 


मां मातंगी की उत्पत्ति की कथा 


पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, एक बार भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी कैलाश पर्वत पर भगवान शिव और माता पार्वती से भेंट करने पहुंचे। भगवान विष्णु भोलेनाथ को भेंट स्वरूप देने के लिए अपने साथ स्वादिष्ट भोजन और अन्य खाद्य पदार्थ लेकर गए थे। जब सभी भोजन कर रहे थे तभी शिव व पार्वती की थाली में से कुछ भोजन धरती पर गिर गया।


भोजन के इन्हीं अंशों से मां मातंगी उत्पन्न हुई। इसी कारण मातारानी के मातंगी रूप को हमेशा जूठन का भोग लगाया जाता हैं। जूठन में से उत्पन्न होने के कारण उनका एक नाम उच्छिष्ट मातंगी भी है। 


कही-कहीं यह भी उल्लेख है कि देवी मातंगी हनुमानजी और शबरी के गुरु मतंग ऋषि की पुत्री थीं। मतंग ऋषि के यहां माता दुर्गा के अंशावतार के रूप में जन्मी कन्या ही मातंगी देवी है। मातंगी देवी को आदिवासियों की देवी भी माना गया है। दस महाविद्याओं में से मातंग देवी की आराधना हिन्दू धर्म के अलावा बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं। बौद्ध धर्म में मातंगी को मातागिरी के नाम से पूजा जाता है।


मातंगी की आराधना से होते हैं यह विशेष लाभ 


मैया की आराधना से आकर्षण, शक्ति, क्रीड़ा कौशल और कला तथा संगीत के क्षेत्र में बहुत अधिक सफलता मिलती है। साथ ही मां वशीकरण की महाविद्याओं में भी शामिल हैं। माता को पलास और मल्लिका के पुष्प एवं बेलपत्र बहुत प्रिय है। मातंगी देवी इंद्रजाल और जादू को खत्म करने, वचन, तंत्र और कला को साधने में सहायक है।


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