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कुल्लू घाटी की पहाड़ियों पर स्थित रघुनाथ मंदिर के देवता भगवान रघुनाथ या भगवान राम हैं। यह मंदिर सदियों से, कुल्लू के शाही परिवार इस मंदिर का संरक्षण कर रहे हैं। माना जाता है कि इस मंदिर में स्थापित रघुनाथ जी की मूर्ति पूरी घाटी को किसी भी तरह की बुराई से बचाती है। यह मंदिर लोगों की आस्था और भक्ति का प्रतीक है। यहां के दशहरा उत्सव के दौरान भगवान रघुनाथ के दर्शन के लिए देश-विदेश से लोग आते हैं।
कुल्लू के रघुनाथ मंदिर का इतिहास 1637 ई. से शुरू होता है, जब कुल्लू घाटी के शासक राजा जगत सिंह का शासन था। राजा को सूचनी मिली कि पास के गांव टिपरी में रहने वाले दुर्गा दत्त नामक ब्राह्मण के पास सुंदर मोतियों का संग्रह है। राजा मोती लेना चाहते थे, लेकिन जब उन्होंने मोती मांगे तो दुर्गा दत्त ने कहा कि, उसके पास कोई मोती नहीं है। राजा आश्वस्त नहीं हुए, हालांकि दुर्गा दत्त ने राजा को हर संभव तरीके से समझाने की कोशिश की, लेकिन राजा नहीं समझे। राजा से उसे आखिरी चेतावनी दी और चेतावनी से डरकर दुर्गा दत्त ने अपने पूरे परिवार और घर को आग लगा दी। उसने राजा को श्राप दिया कि उसे उसकी क्रूरता के लिए दंडित किया जाएगा।
कुछ सालों बाद राजा को कुष्ठ रोग हो गया और उसे ब्राह्मण के परिवार की हत्या की दोषी महसूस हुआ, जिसके बाद राजा ने फुहरी बाबा की शरण ली, उन्हें किसान दास जी के नाम से भी जाना जाता है। बाबा ने राजा को अयोध्या के त्रेतनाथ मंदिर से भगवान राम की मूर्ति लाने के सलाह दी। बाबा के निर्देशानुसार, त्रेतनाथ मंदिर की मूर्ति को दामोदर दास ने चुरा लिया और साल 1651 ई. में कुल्लू ले आया।
मूर्ति को रघुनाथ जी के लिए बनाए गए मंदिर में स्थापित किया गया और राजा जगत सिंह ने श्राप से मुक्ति पाने और बीमारी से ठीक होने के लिए कई दिनों तक चरणामृत पिया। तब से उन्होंने अपनी जीवन और पूरा राज्य रघुनाथ जी के चरणों में अर्पित कर दिया और साल 1651 से हर साल दशहरा उत्सव का आयोजन किया जाता है। हर साल आश्विन महीने के पहले पखवाड़े के दौरान घाटी में रहने वाले 365 देवी-देवताओं को राजा की ओर से धालपुर आने और रघुनाथ जी के सम्मान में यज्ञ आयोजित करने का निमंत्रण मिलता है।
कुल्लू में दशहरा उत्सव भारत के अन्य भागों से अलग तरीके से मनाया जाता है। भारत के अधिकांश भागों में राक्षस राजा रावण, उसके पुत्र मेघनाद और रावण के भाई कुंभकर्ण के पुतले जलाए जाते हैं। कुल्लू घाटी में दशहरा उत्सव उसी दिन शुरू होता है जिस दिन यह देश के बाकी हिस्सों में समाप्त होता है। यह विजयादशमी के दिन शुरू होता है, जिस दिन भगवान राम ने रावण को हराया था। इस अवसर पर मेले लगते हैं और इस दौरान अंतरराष्ट्रीय लोक महोत्सव का आयोजन किया जाता है। स्थानीय वस्तुओं जैसे घरेलू सामान, ऊनी वस्त्र, लकड़ी के हस्तशिल्प और क्षेत्र के पारंपरिक आभूषणों की बिक्री के लिए कई स्टॉल लगाए जाते है।
दशहरा उत्सव के पहले दिन शाही परिवार की मुख्य देवी हडीमा को मनाली से लाया जाता है। शाही परिवार को आशीर्वाद देने के बाद उन्हें ढालपुर लाया जाता है। रघुनाथ जी की मूर्ति को हडीमा देवी की मूर्ति के चारों ओर बैठाने के बाद, उन्हें एक सुंदर ढंग से सजाए गए रथ पर बिठाया जाता है। देवी भिखती से संकेत मिलने के बाद, रथ की रस्सियां खींची जाती हैं। रथ को दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है जहां रघुनाथजी अगले 6 दिनों तक रहते हैं।
जुलूस के दौरान रंग-बिरंगी पालकियों में सैकड़ों देवी-देवता सवार होते हैं। छठे दिन मोहल्ला आयोजित किया जाता है जिसमें देवी-देवता एकत्रित किये जाते हैं। उत्सव के अंतिम दिन, रघुनाथजी को लाने वाले रथ को व्यास नदी के तट पर लाया जाता है और कांटेदार झाड़ियों का एक बंडल जलाया जाता है। कांटेदार झाड़ियों का जलना लंका दहन का प्रतीक है। फिर रघुनाथजी को वापस मंदिर में लाया जाता है और उत्सव समाप्त हो जाता है।
हवाई मार्ग - अगर आप हवाई यात्रा कर रहे है तो यहां के लिए निकटतम हवाई अड्डा भुंतर है जो कुल्लू शहर से केवल 10 किमी दूर है। मंदिर जाने के लिए आप यहां से टैक्सी ले सकते हैं।
रेल मार्ग - यहां के लिए निकटतम रेलवे स्टेशन जोगिंद्रनगर है। जो कुल्लू से लगभग 100 से 110 किमी दूर है। रेलवे स्टेशन से कुल्लू जाने के लिए बसें या टैक्सियां ली जा सकती है।
सड़क मार्ग - कुल्लू शहर में नियमित बस सेवाएं है जो कुल्लू को शिमला, चंडीगढ़, दिल्ली, अंबाला, अमृतसर जैसे अन्य महत्वपूर्ण शहरों से जोड़ती है।
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