वट सावित्री व्रत विवाहित स्त्रियों द्वारा अपने पति की लंबी उम्र, अच्छे स्वास्थ्य और सुखमय वैवाहिक जीवन की कामना से रखा जाने वाला एक विशेष पर्व है। यह व्रत सावित्री और सत्यवान की पौराणिक कथा पर आधारित है, जिसमें सावित्री ने अपने दृढ़ संकल्प और तपस्या से यमराज से अपने पति के प्राण वापस लिए थे। लेकिन व्रत से जुड़ा एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि इसे कुछ क्षेत्रों में अमावस्या और कुछ में पूर्णिमा को क्यों मनाया जाता है।
अमावस्यांत पंचांग के अनुसार, किसी माह का समापन अमावस्या तिथि पर होता है। इस कैलेंडर में ज्येष्ठ अमावस्या को वट सावित्री व्रत रखने की परंपरा है। यह परंपरा मुख्यत उत्तर भारत जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, और नेपाल में प्रचलित है। इन क्षेत्रों में वट सावित्री व्रत को अमावस्या को ही पूर्ण श्रद्धा और भक्ति से मनाया जाता है।
इस पंचांग में नया महीना अमावस्या के अगले दिन से शुरू होता है, इसलिए ज्येष्ठ माह का अंतिम दिन अमावस्या होती है और उसी दिन यह व्रत मनाया जाता है।
वहीं, पूर्णिमांत पंचांग के अनुसार माह का समापन पूर्णिमा तिथि पर होता है। इस गणना पद्धति में ज्येष्ठ पूर्णिमा को वट सावित्री व्रत रखा जाता है। यह परंपरा मुख्य रूप से महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और कर्नाटक के कुछ हिस्सों में मानी जाती है।
पूर्णिमांत पंचांग में महीना पूर्णिमा से खत्म होता है, इसलिए व्रत रखने की तिथि आगे हो जाती है। इसलिए इस भिन्नता के कारण व्रत की तिथि अमावस्या और पूर्णिमा, दोनों के रूप में प्रचलित हो गई है।
धर्मशास्त्रों और पुराणों में वट सावित्री व्रत की कोई एक निश्चित तिथि नहीं बताई गई है, बल्कि इसकी कथा और भावना को प्रधानता दी गई है। इसलिए दोनों ही कैलेंडर के अनुसार व्रत रखने वाले स्त्रियों को समान फल प्राप्त होता है।
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पितृपक्ष, जिसे श्राद्ध पक्ष और महालय के नाम से भी जाना जाता है, वह विशेष समय होता है जब हम अपने पूर्वजों और पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं।
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